वन्‍दे मातरम् !!!!






Tuesday, November 17, 2009

दान की सात मर्यादाएँ

ज्‍योतिष और धर्म में दान का विशेष महत्‍व है दान की महिमा का वर्णन करते हुए हिन्‍दु धर्म ग्रन्‍थों में बहुत विस्‍तार से लिखा गया है। ज्‍योतिषीय दृ‍ष्टि से जब जन्‍म कुण्‍डलियों का आंकलन करते हैं तो कई बार देखने में आता है कि पूर्व जन्‍मों में जाने अनजाने में किए गए दुष्‍कर्मों के फलस्‍वरूप जब ग्रह दूषित हो कर कुप्रभाव दिखाते हैं और जीवन दुष्‍कर हो जाता है। ऐसे में प्रायश्चित स्‍वरूप अलग- अलग प्रकार के दान का विधान बताया है जैसे शनि ग्रह के लिए तेल में छाया दान, अलग- अलग ग्रहों से संबंधित द्रव्‍यों व धातुओं का दान इत्‍यादि। न सिर्फ प्रारब्‍ध के दुष्‍कर्मों के कुप्रभावों के निवार्णार्थ प्रायश्चित स्‍वरूप दान का महत्‍व है बल्कि भविष्‍य में आने वाले जीवन को सुखमय एवं आध्‍यात्मिक व भौतिक उन्‍नति हेतु भी पुण्‍य संचय की दृष्टि से भी विभिन्‍न प्रकार के दान का महत्‍व बताया गया है।
दान व्‍यवस्‍था पूर्व जन्‍मों में की गई त्रुटियों के फलस्‍वरूप होने वाले कुप्रभावों की शांति कर भौतिक व आध्‍यात्मिक उन्‍नति का मार्ग प्रशस्‍त करती है, वैचारिक रूप से व्‍यक्ति को सुदृढ़ बनाती है व व्‍यक्ति को सामाजिक कर्त्‍तव्‍य पालन के प्रति जागरूक करती है। मानवता के विकास में सहायक दान प्रक्रिया का स्‍वार्थी तत्‍वों द्वारा संकीर्ण व स्‍वार्थी विवेचन कर धन लिप्‍सा पूर्ति व कुत्सित कर्मों को करने व छिपाने का साधन बनाने का प्रयास किया गया जिससे इस प्रक्रिया के प्रति आम जनता में अविश्‍वास व विभ्रम की स्थिति पैदा हो गई।
इसी विभ्रम व अविश्‍वास के समाधान हेतु परम् विष्‍णु भक्‍त श्री नारद मुनि द्वारा एक श्‍लोक की विवेचना स्‍कन्‍द पुराण में वर्णित है। कथानुसार सौराष्‍ट्र के राजा धर्मवर्मा को कई वर्षों की तपस्‍या के बाद आकाशवाणी द्वारा श्‍लोक कहा गया –
द्विहेतु षडधिष्‍ठानं षडङ व़ द्विपाकयुक्। चतुष्‍प्रकाटं त्रिविधं त्रिनाशं दानमुच्‍यते।। दान के दो हेतु, छः अधिष्‍ठान, छः अंङ दो प्रकार के परिणाम्, चार प्रकार, तीन भेद और तीन विनाश साधन हैं, ऐसा कहा जाता है।
इस श्‍लोक की व्‍याख्‍या करते हुए नारद जी ने कहा है दान का थोड़ा होना या बहुत होना अभ्‍युदय का कारण नहीं होता, अपितु श्रद्धा और शक्ति के बिना किए कए दान से भला नहीं हो सकता और दान भी नहीं माना जाएगा। इनमें से श्रद्धा के विषय में यह श्‍लोक है। यदि को श्रद्धा के बिना अपना जीवन भी निछावर कर दे तो भी वह उसका कोई फल नहीं पाता; इसलिए सबको श्रद्धालु होना चाहिए। श्रद्धा से ही धर्म का साधन किया जाता है धन की बहुत बड़ी राशि से नहीं। देहधारियों में उनके स्‍वभाव के अनुसार श्रद्धा तीन प्रकार की होती है- सात्विकी, राजसी और तामसी। सात्विकी श्रृद्धा वाले पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं, राजसी श्रृद्धा वाले लोग यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हैं तथा तामसी श्रृद्धा वाले मनुष्‍य प्रतों भूतों और पिशाचों की पूजा किया करते हैं। इसलिए श्रृद्धावान पुरुष अपने न्‍यायोपार्जित धन का सत्‍पात्र के लिए जो दान करते हैं वह थोड़ा भी हो तो भगवान प्रसन्‍न हो जाते हैं।
शक्ति के विषय में श्‍लोक इस प्रकार से है- कुटुम्‍ब के भरण पोषण से जो अधिक हो, वही दान करने योग्‍य है। उसी से वास्‍तविक धर्म का लाभ होता है। यदि आत्‍‍मीय जन दु:ख से जीवन निर्वाह कर रहे हों तो उस अवस्‍था में किसी सुखी और समर्थ पुरुष को दान देने वाला धर्म के अनुकूल नहीं प्रतिकूल चलता है। जो भरण पोषण करने योग्‍य व्‍यक्तियों को कष्‍ट देकर किसी मृत व्‍यक्ति के लिए बहूव्‍यवसाध्‍य श्राद्ध करता है तो उसका किया हुआ वह श्राद्ध उसके जीते जी अथवा मरने पर भी भविष्‍य में दु:ख का ही कारण होता है। जो अत्‍यंत तुच्‍छ हो अथवा जिस पर सर्वसाधारण का अधिकार, वह वस्‍तु ‘सामान्‍य’ कहलाती है, कहीं से मांगकर लायी वस्‍तु गई वस्‍तु को ‘याचित’ कहते हैं, धरोहर का ही दूसरा नाम ‘न्‍यास’ है बन्‍धक रखी हुई वस्‍तु को ‘आधि’ कहते हैं, दी हुई वस्‍तु ‘दान’ के नाम से पुकारी जाती है, दान में मिली हुई वस्‍तु को ‘दान धन’ कहते हैं, जो धन एक के यहॉं धरोहर रखा गया हो और रखने वाले ने उसे पुन: दूसरे के यहॉ रख दिया हो उसे ‘अन्‍वाहित’ कहते हैं, जिसे किसी के विश्‍वास पर किसी के यहॉ पर छोड़ दिया जाए वह धन ‘निक्षिप्‍त’ कहलाता है, वंशजों के होते हुए भी सब कुछ दूसरों को दे देना ‘सान्‍वय सर्वस्‍व दान’ कहा गया है। विद्वान पुरुष को चाहिए कि वे आपत्ति काल में भी उपर्युक्‍त नव प्राकर की वस्‍तुओं का दान न करें। जो पूर्वोक्‍त नव प्राकर की वस्‍तुओं का दान करता है, वह मूढ़चित्‍त मानव प्रायश्चित का भागी होता है।
इस प्रकार दान के दो हेतु श्रृद्धा और शक्ति के बाद दान के छ: अधिष्‍ठानों का वर्णन करते हुए श्री नारद जी कहते हैं- धर्म, अर्थ, काम, लज्‍जा, हर्ष, और भय ये दान के छ: अधिष्‍ठान कहे जाते हैं। सदा ही किसी प्रयोजन की इच्‍छा न रखकर केवल धर्म बुद्धि से सुपात्र व्‍यक्तियों को दान दिया जाता है तो उसे ‘धर्म दान’ कहते हैं। मन में कोई प्रयोजन रखकर ही प्रसंग वश जो कुछ दिया जाता है उसे ‘अर्थ दान’ कहते हैं, वह इस लोक में ही फल देने वाला होता है। स्‍त्री समागम, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी मनुष्‍यों को प्रयत्‍नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह ‘काम दान’ कहलाता है। भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्‍जावश देने की प्रतिज्ञा कर जो दिया जाता है वह ‘लज्‍जा दान’ माना गया है। कोई प्रिय कार्य देखकर अथवा प्रिय समाचार सुनकर हर्षोल्‍लास से जो कुछ दिया जाता है उसे ‘हर्ष दान’ कहते हैं। निन्‍दा, अनर्थ और हिंसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्‍यक्तियों को विवश होकर जो कुछ दिया जाता है, उसे ‘भय दान’ कहते हैं।
दान के छ: हैं- अंग दाता, प्रतिग्रहीता, शुद्धि, धर्मयुक्‍त देय वस्‍तु, देश और काल। दाता निरोग, धर्मात्‍मा, देने की इच्‍छा रखनेवाला, व्‍यसन रहित, पवित्र तथा सदा अनिन्‍दनीय कर्म से आजीविका चलानेवाला होना चाहिए। इन छ: गुणों से दाता की प्रशंसा होती है। सरलता से रहित, श्रद्धाहीन, दुष्‍टात्‍मा, दुर्व्‍यसनीय, झुठी प्रतिज्ञा करने वाला तथा बहुत सोने वाला दाता तमोगुणी और अधम माना गया है। जिसके कुल, विद्या और आचार तीनों उज्‍ज्‍वल हों, जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो, जो दयालु जितेंद्रिय तथा योनि दोष से मुक्‍त हो वह ब्राह्मण दान का उत्‍तम पात्र (प्रतिग्रह का उत्‍तम अधिकारी) कहा जाता है। याचकों को देखने पर सदा प्रसन्‍न मुख हो उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्‍कार करना तथा उनमें दोष दृष्टि न रखना ये सब सद्गुण दान में शुद्धि कारक माने गए हैं। जो धन किसी दूसरे को सता कर न लाया गया हो, अतिक्‍लेश उठाये बिना अपने प्रयत्‍न से उपार्जित किया गया हो, वह थोड़ा हो या अधिक हो, वही देने योग्‍य बताया गया है। किसी के साथ कोई धार्मिक उद्देश्‍य लेकर जो व़स्‍तु दी जाती है, उसे धर्मयुक्‍त देय कहते हैं। यदि देय वस्‍तु उक्‍त विशेषताओं से शून्‍य हो तो उसके दान से कोई फल नहीं होता। जिस देश अथवा काल में जो- जो पदार्थ दुर्लभ हो, उस- उस पदार्थ का दान करने योग्‍य वही- वही देश और काल श्रेष्‍ठ है। इस प्रकार ये दान के छ: अंग बताये गये हैं। महात्‍माओं ने दान के दो फल बताये हैं। उनमें से एक तो परलोक के लिए होता है और एक इहलोक के लिए। श्रेष्‍ठ पुरूषों को जो कुछ दिया जाता है, उसका परलोक में उपभोग होता और असत् पुरूषों को जो कुछ दिया जाता है, वह दान यहीं भोगा जाता है। ध्रुव, त्रिक, काम्‍य और नैमित्तिक – इस क्रम से द्विजों ने वैदिक दान मार्ग को चार प्रकार का बतलाया है। कुआ बनवाना, बगीचे लगवाना तथा पोखरे खुदवाना आदि कार्यों में जो सबके उपयोग में आते हैं, धन लगाना ‘ध्रुव’ कहा गया है। प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है, उस नित्‍य दान को ही ‘त्रिक’ कहते हैं। सन्‍तान, विजय, एश्‍वर्य, स्‍त्री और बल आदि के निमित्‍त तथा इच्‍छा की प्राप्ति के लिए जो दान किया जाता है, वह ‘काम्‍य’ कहलाता है। ‘नैमित्तिक दान’ तीन प्रकार का बतलाया गया है। वह होम से रहित होता है। जो ग्रहण और संक्रान्ति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है, वह ‘कालापेक्ष नैमित्तिक दान’ है। श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से जो दान किया जाता है वह ‘क्रियापेक्ष नैमित्तिक दान’ है तथा संस्‍कार और विद्या – अध्‍ययन आदि गुणों की अपेक्षा रखकर जो दान दिया जाता है, वह ‘गुणपेक्ष नैमित्तिक दान’ है। इस प्रकार दान के चार प्रकार बतलाये गये हैं। अब उसके तीन भेदों का प्रतिपादन किया जाता है। आठ वस्‍तुओं के दान उत्‍तम माने गए हैं। विधि के अनुसार किए हुए चार दान मध्‍यम हैं और शेष कनिष्‍ठ माने गए हैं, यही दान की त्रिविधता है। गृह, मंदिर या महल, विद्या, भूमि, गौ, कूप प्राण और सुवर्ण- इन वस्‍तुओं का दान अन्‍य दानों की अपेक्षा उत्‍तम है। अन्‍न, बगीचा, वस्‍त्र तथा अश्‍व आदि वाहन- इन मध्‍यम् श्रेणी के द्रव्‍यों को देने से यह मध्‍यम दान माना गया है। जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक काष्‍ठ और पत्‍थर आदि- इन वस्‍तुओं के दान को श्रेष्‍ठ पुरूषों ने कनिष्‍ठ दान बताया है। ये दान के तीन भेद बताये गए हैं।
अब दान नाश के तीन हेतु बताए हैं। जिसे देकर पीछे पश्‍चाताप किया जाए, जो अपात्र को दिया जाए तथा जो बिना श्रद्धा के अर्पण किया जाए, वह दान नष्‍ट हो जाता है। पश्‍चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा – ये तीनों दान के नाशक हैं। इस प्रकार सात पदों में बंधा हुआ यह दान का उत्‍तम महात्‍म है।
इस प्रकार यदि प्रत्‍येक दानकर्ता दान करते समय उपरोक्‍त तथ्‍यों का पालन करे तो न सिर्फ वह दान के वास्‍तविक एवं व्‍यवहारिक लाभों से लाभांवित हो सकता है, अपितु दानकर्ताओं द्वारा स्‍वयं की एवं साधनों की शुद्धि के पालन के फलस्‍वरूप सामाजिक एवं राष्‍ट्रीय जीवन में सद्गुणों, सद्भावों एवं सुव्‍यवस्‍था का सुंदर अवतरण अवश्‍यमेव होगा।


अमित प्रजापति
Mo. +919981538208
190, चित्रांश भवन, राजीव नगर, विदिशा (म प्र) पिन- 464001
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Tuesday, October 13, 2009

विदेशी लोकतंत्र

चल रही है नोटंकी गरीबों की झोपड़ी में, रोज ब रोज ।
गरीबों के हालात अपनी जगह, राजनीति अपनी जगह ।।

निवाला तक खा जाते हैं, गरीबों का झोंपड़े मे जाकर ।।
जनपथ में करोंड़ों को इफ्‍तार अपनी जगह, राजनीति का साम्‍प्रदायीकरण अपनी जगह।।

खरीदा कलावती को, चुनाव लड़ने से रोका ।
नोटों का खेल जारी है अपनी जगह, दादागिरी भी अपनी जगह ।।

सबूत मिटा दिए सारे, नोट भी ले जाने दिए क्‍वात्रोची को।
अहसानदारी देश पर अपनी जगह, व्‍यापार दलाली का अपनी जगह ।।

शताब्‍दी में बैठकर होता है, आम आदमी सा सफर ।
पत्‍थरों का खौफ अपनी जगह, सादगी का ढ़ोंग भी अपनी जगह ।।

वंशवाद फलफूल रहा, युवाओं के नाम, कभी महिलाओं के नाम पर ।
चालान काटने में व्‍यस्‍त है हवलदार अपनी जगह, ट्राफिक जाम इस देश का अपनी जगह ।।

नोटों से खरीदकर, बचायी थी सरकार जिस लिए ।
123 समझोता कर मूर्ख बने अपनी जगह, परमाणु धार कुंद हुई अपनी जगह ।।

अपराधियों का ज्‍वांइट वेंचर, लुटेरों का प्रायवेट लिमिटेड है ।
टेक्‍स भरने को लंगोटी गिरबी गरीब की अपनी जगह, स्विस बेंक में नेताओं के खाते अपनी जगह ।।

अर्थशास्‍त्री तो हैं ही, उच्‍च शिक्षित मंत्रियों की फौज भी सरकार में ।
गरीबों पर मंहगाई का दंश अपनी जगह, कठपुतिलियों की डोर भी अपनी जगह ।।

क्‍या बेबसी इस देश की, तुष्‍टीकरण से हो गई ।
जवानों का खून बहे अपनी जगह, आतंकियों को सरकारी शह अपनी जगह ।।

राम सेतु पर प्रहार, व्‍यापार के नाम पर ये शगल पुराना है ।
विज्ञान, आधुनिकता, धर्मनिरनेक्षता ये बहाने अपनी जगह, हिन्‍दु समाज के खिलाफ षडयंत्र अपनी जगह ।।

विश्‍व गुरू थे कभी, फिर शिक्षक बने, अब वो भी नहीं ।
सांस्‍कृतिक लुप्‍त हुईं अपनी जगह, पाठशालाऍं हो चलीं विदेशी शापिंगमॉल अपनी जगह ।।

अमेरिकी आदेश पर नीतियॉं बन रहीं इस देश में ।
भारतीय छात्रों से डरे बुश ओबामा अपनी जगह, शिक्षा की सिब्‍बल नीति अपनी जगह ।।

विश्‍वकर्मा केद हुए, शिल्‍पी भी मजबूर हुए मजदूरी को ।
रेशम सुख भोगती मल्‍टीनेशनल अपनी जगह, हम आम जन रेशम के कीड़े अपनी जगह।।

भूखा, नंगा, बेसहारा घूम रहा अन्‍नदाता देश का ।
भूपति श्रीहीन हो दास बनेअपनी जगह, अन्‍नपूर्णा सुफला धरा का अधिग्रहण अपनी जगह।।

बनाया था ताजमहल गरीबों के खून से, मुहोब्‍बत की याद में ।
व़ो विदेशी शहंशाह थे अपनी जगह, ये विदेशी लोकतंत्र भी अपनी जगह ।।



अमित प्रजापति
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Friday, September 11, 2009

आत्‍म विस्‍मरण

पिछले दो-तीन दिनों से समाचार पत्रों में किसी कोने पर छोटे-छोटे से समाचार छप रहे हैं कि पाकिस्‍तान से हिंदू पलायन कर रहे हैं, औरतों और बच्‍चों को अपहरण हो रहा है, उन्‍हें मुस्‍लमान बनाया जा रहा है। ¬पाकिस्‍तान के रहिमयार खान जिले के निवासी राणराम ने पाकिस्‍तान से भारत पहुँचने पर एक पत्रकार को बताया कि उसकी पत्‍नी को बलपूर्वक उठाकर उसके साथ बलात्‍कार किया गया व उसका(पत्‍नी का) धर्मान्‍तरण कर दिया गया। उसकी छोटी सी बच्‍ची को भी तालीबानियों ने अपहरण कर उसका भी नाम बदलकर शबीना रख दिया। आज कल रोज हिंदु पाकिस्‍तान में हो रहे अत्‍याचारों से पीड़ित भारत की ओर पलायन कर रहे हैं, भारत सरकार से वीजा मांग रहे हैं।
यह आजकल या कुछ महीनों से शुरु हुआ किस्‍सा नहीं है, स्‍वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही ये सब जारी है। स्‍वतंत्रता प्राप्ति के समय जहॉं काफी लोग भविष्‍य में होने वाली परेशानियों की कल्‍पना कर व उस समय चल रही मारकाट से घबराकर पलायन कर भारत आ गए वहीं बहुत से हिंदु परिवार मातृभूमि से अपने भावनात्‍मक लगाव के चलते वहीं रह गए। वैसे ही जैसे यहॉं बहुत से मुसलमान रुक गए। परन्‍तु जहॉं एक ओर भारत में रह रहे मुसलमान आर्थिक और जनसंख्‍यात्‍मक रूप से वृद्धि करते चले गए वहीं पाकिस्‍तान में रह रहे हिंदु लगातार कम होते चले गए। यह बात किसी से भी छिपी नहीं है। दुनिया में ढ़ोल पीटते मानवाधिकार के ढ़ोंगियों को यह सब कभी दिखाई सुनाई नहीं दिया। हिंदुस्‍तान में भी धर्मनिरपेक्षता का पाखण्‍ड करने वाले राजनीतिज्ञों और तथाकथित प्रगतिवादी बुद्धिजीवियों को भी इन पीड़ित का दुख दिखाई नहीं देता। ये वही धर्मनिरपेक्षतावादी व बुद्धिजीवी हैं, जो एम. एफ. हुसेन और हबीब तनवीर जैसे छद्मभेषी कलाकारों (कला अक्रांताओं) की अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता की लड़ाई के लिए सड़कों पर प्रदर्शन करते नजर आते हैं, परन्‍तु इनमें से किसी को भी कभी पाकिस्‍तान में रह रहे हिंदुओं पर हो रहे अत्‍याचारों ने पीड़ित या व्‍यथित नहीं किया। हिंदुस्‍तान में अल्‍पसंख्‍यकों को विशेष अधिकार दिलाने के लिए जमीं-अस्‍मां एक कर देने वाले इन अति मानवतावादियों को कभी पाकिस्‍तान में छूट गए अपने भाई बहनों पर हो रहे अत्‍याचारों ने कभी आहत नहीं किया।
चलिए, पाकिस्‍तान में हो रहे अत्‍याचार नहीं दिख पाते आपको, पाकिस्‍तान के आगे आप लाचार हैं। भारत के अन्‍दर कश्‍मीर में पी‍ढ़ियों से रह रहे हिंदुओं के साथ क्‍या नहीं हुआ सारी दुनिया जानती है।अपने ही पुरखों की धरती और विरासत को छोड़कर मारे मारे फिरते इन परिवारों के दुखों को सुनना है तो दिल्‍ली में कश्‍मीर से निर्वासित् सैकड़ों हिंदु परिवार ऑंखों में ऑंसु लिए मिल जाएगें।
ये ऑंसू, ये दर्द, ये घाव किसी हिंदुस्‍तानी अल्‍पसंख्‍यक चिंतक को क्‍यों नहीं दिखाई देते, ये मुझ अल्‍प बुद्धि को कोई समझा दे तो सारे जीवन उस महान आत्‍मा की चरण वंदना करूँ।
आज हिंदुओं और भारतीय संस्‍कृति पर गहरे से गहरा घाव कर इनाम लूटने की होड़ लगी है।इस होड़ में बेशर्मी की हदों को पार करना रोज का खेल है। अरुन्‍धती राय को कश्‍मीर में हिंदुओं पर हुए अत्‍याचार नहीं दिखाई देते पर भारतीय सेना को कटघरे में रखने में सेकण्‍ड की भी देर नहीं लगातीं। कश्‍मीरी आतंकवादियों और अलगाववादियों की खुलेआम तरफदारी करती हैं, भारत के प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में उनके भारत विरोधी लेख छपते हैं और सरकार सोती है किसी पर कोई कार्यवाही नहीं होती।
कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह के जितने भी तथाकथित बुद्धिजीवी आए दिन अपनी प्रतिभा प्र‍दर्शित करते रहते हैं यह सब किसी न किसी विदेशी षडयंत्र का बिके हुए हिस्‍से हैं। पर यह इतने खुले आम इतनी आसानी से संचालित है कि लगता है कि कोई चरागाह है जहॉं कोई भी धास चर सकता है। आज लोग रुपयों की चाह में, पुरुस्‍कार पाने की होड़ में अपने ही देश को, धर्म को बेचने में लगे हुए हैं।
विचारणीय तथ्‍य यह है कि जिस धर्म ने, जिस देश ने दुनिया को गीता जैसा ग्रन्‍थ दिया उसी के मानने वाले आज इतनी दयनीय, शोचनीय अवस्‍था में हैं। जिस गीता को सुनकर अर्जुन ने अपने पौरुष का इतिहास गढ़ दिया, उसी ग्रन्‍थ की पूजा करने वाले आज कीड़े मकोड़ों से ज्‍यादा घृणित जीवन जी रहे हैं। इससे ज्‍यादा उपहास जनक और लज्‍जाजनक कुछ नहीं हो सकता।
इस सबके मूल में दो ही कारण नजर आते हैं, एक भौतिकवाद की ओर हमारा ज्‍यादा झुकाव होना और दूसरा अपनी ही जड़ों से दूर होना है। आज आतंकवाद जैसी समस्‍या का समाधान हम गांधी वाद में ढ़ूंढ़ते हैं, इससे बड़ा जोक मुझे नजर नहीं आता। यह किन कपोल कल्‍पनाओं और मुगालतों में जीते हैं हम! आतंकवाद और इस तरह के जितने भी संक्रमण हैं इनका एक ही समाधान नजर आता है और वह है कृष्‍ण । कृष्‍णा का जीवन दर्शन ही मात्र इन सारी समस्‍याओं का समाधान है। अगर हम सूक्ष्‍मता से कृष्‍ण पर विचार करें तो पाएंगे कि जहॉं एक ओर सर्वशक्तिमान थे पर अपने धर्म, राज्‍य और राजा के सेवक की तरह अपनी सेवाऍं देते रहे। उन्‍होंने अपनी शक्ति, सामर्थ्‍य का एक मात्र उपयोग धर्म और न्‍याय की स्‍थापना और सशक्तिकरण के लिए किया। सारे वैभव के स्‍वामी होने के बाद भी वह वैराग्‍य से पूर्ण थे, निष्‍काम कर्म के प्रणेता और पालनकर्ता थे। अधर्मियों, अत्‍याचारियों और उत्‍पातियों के विनाश के लिए उनमें साम, दाम, दण्‍ड और भेद की नीतियों के चुनाव में तनिक भी संकोच नजर नहीं आता और साथ में मानवता की लिए अगाध प्रेम भी और सेवा भाव भी नजर आता है इन सारे सूत्रों को का पालन ही न सिर्फ हमारे धर्म और राष्‍ को पुनर्स्‍थपित कर सकता है वरन् संपूर्ण मानवता को दिशा दे सकता है।
परन्‍तु विडम्‍बना देखिए कि हम अपनी बहुमूल्‍य निधि को भूलकर भीख मांगते फिर रहे हैं। हम अपने अंदर के प्रकाश को भूलकर अंधेरे में भटक रहे हैं। जिस तरह से एक झूठ कई झूठों को जन्‍म देता है, वैसे ही आजादी और आजादी दिलाने वालों के भ्रम में पड़कर हम और हमारा राष्‍ भ्रमित होता चला जा रहा है। वक्‍त है हम हमारे आत्‍म और मानसिक मंथनों से अपनी वास्‍तविक उन्‍नति का अमृत पाने की कोशिश करें क्‍योंकि अगर हम अब भी न संभले तो कब संभलेंगे।

अमित प्रजापति
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Tuesday, September 8, 2009

गहरी नींद

हम एक सामान्‍य परिवार की कल्‍पना करें जिसमें वृद्ध माता पिता, उनका 35-36 वर्ष का पुत्र उसकी पत्‍नी और उसके बच्‍चे जो स्‍कूल में पढ़ रहे हों । अब इस परिथिति में अपेक्षित है कि वृद्ध माता पिता भजन पूजन करेंगे और घर के छोटे मोटे काम में हाथ बटाएगें, पुत्रवधु घर के संचालन और प्रबंधन का काम करेगी और बच्‍चे भी अपने अध्‍ययन में व्‍यस्‍त हैं। ऐसेमें कल्‍पना करें कि परिवार का मुख्‍य संचालन कर्ता अपनी जिम्‍मेदारियों को सुचारू रूप से न निभा सके और अपनी कमजोरियों व चल रही परेशानियों को‍ छिपाते हुए घर वालों से झूठ बोले तो एक समय बाद परिवार की क्‍या स्थिति होगी यह कल्‍पना करना सहज है।
अब हम ऐसा समझें कि ऊपर जिस परिवार का वर्णन है वह हमारा देश है वृद्ध माता पिता और पुत्र वधु समाज हैं परिवार का संचालन कर्ता हमारा शासक प्रशासक व राजनेंतिक नतृत्‍व है व बच्‍चे देश के भविष्‍य हैं तो क्‍या हम ये महसूस नहीं करते हैं कि हमारे देश के नेतृत्‍वकर्ता आपनी जिम्‍मेदारियों को न सिर्फ निभा सकने में अक्षम् हैं। अगर हम इसे नजर अंदाज करते हैं तो क्‍या ये ऐसा नहीं है कि हम अपनी कमजोरियों व अकर्मण्‍यता से होने वाले परिणामों को अनदेखा कर शुतुर्मुग की तरह रेत में सिर घुसाकर भ्रम पाल रहे हैं कि जैसे नहीं कोई तूफान नहीं है।
हमारे राजनेतिक नेतृत्‍व की अकर्मण्‍यता व कमजोरियों के चलते ही कश्‍मीर के बड़े भू-भाग पर पाकिस्‍तान कब्‍जा किए हुए है, चीन हजारों कि.मी.भूमिको हथिया चुका है और बात सिर्फ यहीं खत्‍म नहीं हो जाती स्थिति बिगड़ते ¬– बिगड़ते इतनी भयावह हो गई है कि देश के दुश्‍मन खुले आम ढंके की चोट पर देश को तीस तुकड़ों मे तोड़ने की बात करते हैं हम लाचारों की तरह चुपचाप सुनते हैं। हमारी विदेश नीति के निकम्‍मेपन की दास्‍तान इतनी बड़ी है कि चीन और अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्‍ तो आए दिन हमारा उपहास उड़ाते ही हैं, अब हम पाकिस्‍तान, नेपाल और बंगलादेश जैसे टटपुंजियों से भी कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं हैं। हमारी मातृभूमि की अस्‍मिता को ये भिखमंगे देश चुनोति दे रहे हैं। माओवादियों ने भारत नेपाल सीमा पर सैकड़ों ऐकड़ भूमि पर कब्‍जा कर रखा है और विश्‍व में सर्वश्रेष्‍ठ समझी जाने वाली हमारी सेना हमारे भोंदू राजनैतिक आकाओं की अकर्मण्‍यता के चलते हाथ पर हाथ रखे विवशा बैठी है। इन्‍हीं राजनेतिक आकाओं की स्‍वार्थी बलिवेदी पर कश्‍मीर में हमारी सेना के जवान पानी की तरह अपनी जान गवां रहे हैं, और हम जो देश की आम जनता हैं, इस सबसे बेफिक़र अपनी दुनिया में अपने सपनों में मस्‍त हैं। कभी कभी जब कुछ घटनाओं के झटकों से हमारी नींद टूटने को होती है तो हमारे कुशल शासक प्रशासक हमें झूठे वादों आस्‍वासनों और परिलोक की कहानियों की लोरी गाकर सुना देते हैं और हम फिर मस्‍त झपकी में खो जाते हैं।

वा‍स्‍तविकता में हमारी ये नींद नयी नहीं है। एक समय जब हम विश्‍व सिरमोर थे पर उस समय भी हमारी सम्‍पन्‍नता और सामर्थ्‍य शेष विश्‍व के लिए डरावनी थी बल्कि शरणागत वत्‍सल भी थी। जब विश्‍व को हमारी यह सफलता खटकने लगी तो षडयंत्रों का खेल बढ़ गया, हम इन षडयंत्रों मे फंसते चले गये। लार्ड मेकॉले का ब्रिटिश महारानी को लिखा चर्चित पत्र सबको याद होगा जिसमें भारतीयों की चारित्रिक सुदृढ़ता की प्रशंसा की गई थी और कहा गया कि यदि इन्‍हें अपना गुलाम बनाना है तो इनका चारित्र हनन करना होगा। इसके बाद से जो नीतियॉं भारत में लागू की गईं उनका एकमात्र उद्देश्‍य चारित्रिक आर्थिक हर दृष्टि से भारतीयों को दीन हीन बनाना था।तब जो देश में शिक्षा नीति लागू की गई (जो तक अनवरत् बल्कि स्‍वतंत्रता प्राप्ति के पश्‍चात् वह और भी तेजी से विकसित हुई) उसने हम भारतीयों की सोच को लकवा पीड़ित कर दिया। इस शिक्षा नीति ने हमें इस सोच तक सीमित कर दिया कि पढ़ो, डिग्री लो, नोकरी करो, शादी करो, घर बनाओ, गाड़ी खरीदो, सुख सुविधाओं को जुटाने में जिंदगी बिताओ, इससे ज्‍यादा हम सोचने के नहीं बचे। आज इसी गुलामी जन्‍य शिक्षा में पारंगत लोग देशा चला रहे हैं।हम कितने बड़े झूठ और भ्रम के साथ खड़े हैं इसका उदाहरण है कि देश में सम्‍मानित समझे जाने वाले C.A. और M.B.A. पढ़ा हमारा युवा वर्ग इस झूठ से सम्‍मो‍हित है कि देश की अर्थव्‍यवस्‍था का मुख्‍य आधार स्‍तंभ शेयर बाजार है । आज इसी मुगालते के चलते देश की अर्थव्‍यवस्‍था का मुख्‍य आधार खेती, सरकारी नीतियों में उपेक्षा का शिकार है, क्‍या अपने पैर पर कुल्‍हाड़ी मारने जैसा नहीं है।

आज समाज के ज्‍यादातर लोगों की सोच व्‍यक्तिगत् स्‍वार्थों पर आधारित है, राष्‍वादिता जैसे विचार को पिछड़ेपन की निशानी समझा जाता है। सामाजिक और सामाजिक सरोकारों जैसे किसी भी विषय पर सोचने तक का समय निकालना मूर्खतापूर्ण कृत्‍य समझा जाता है। अब इससे ज्‍यादा हमारा और क्‍या चारित्रिक पतन होगा ? क्‍या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अंग्रज अपनी चालों में कामयाब रहे ? हम अब भी यह सब समझने की स्थिति में नहीं हैं। क्‍या यह ऐसा नहीं है कि किसी जेल के केदी को ड्रग एडिक्‍ट बनाकर जेल से छोड़ दिया जाए और वह कैदी यह सोच कर प्रसन्‍न रहे कि मैं स्‍वतंत्र हो गया हूँ ।
ऐसी स्थिति में अगर आज पाकिस्‍तान, नेपाल जैसे बंगलादेश जैसे भिखमंगे देश भारत को आये दिन तमाचे मारने का दुस्‍साहस करते हैं तो कौन सी बड़ी बात है। जब हम इन छोटे-छोटे सर्दी जुखामों का सामना नहीं कर सकते तो चीन और अमेरिका जैसी स्‍वाइन फ्‍लू और एड्स जैसी महामारियों का कैसे सामना करेंगे। इसके लिए हमें हर स्‍तर पर रोग प्रतिरोधक तंत्र मजबूत करना होगा। इसकी शुरूआत हमें अपने आप से करनी होगी, इसके लिए हमें मानसिक और आत्मिक रूप से जाग्रत होना होगा, बेहोशी तोड़नी होगी। क्‍योंकि जो अपनी मदद नहीं कर सकता उसकी तो देवता भी मदद नहीं कर सकते।

अमित प्रजापति
Mo. +919981538208
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Monday, September 7, 2009

मृत्‍यु सूचक लक्षण

मृत्‍यु निकट आने पर हमारा शरीर कई ऐसे लक्षण प्रकट करने लगता है जिन पर यदि ध्‍यान दिया जाए तो आने वाली मृत्‍यु का आभास किया जा सकता है। जिस व्‍यक्ति की दाहिनी नासिका में एक दिन रात अखण्‍ड रूप से वायु चलती है उसकी आयु तीन वर्ष में समाप्‍त हो जाती है्, और जिसका दक्षिण श्र्वास लगातार दो दिन या तीन दिन तक निरन्‍तर चलता रहता है, उस व्‍यक्ति को इस संसार में मात्र एक वर्ष का ही मेहमान जानना चाहिए। यदि दोनों नासिका छिद्र दस दिन तक निरन्‍तर ऊर्घ्‍व श्र्वास के साथ चलते रहें तो मनुष्‍य तीन दिन तक ही जीवित रहता है। यदि श्र्वासव़ायु नासिका के दोनों छिद्रों को छोड़कर मुख से बहने लगे तो दो दिन के पहले ही उसका परलोकगमन हो जाएगा।
जब सूर्य सप्‍तम् राशि पर हों और चन्‍द्रमा जन्‍म नक्षत्र पर आ गए हों तब यदि दाहिनी नासिका से श्र्वास चलने लगे तो उस समय सूर्य देवता से अधिष्ठित काल प्राप्‍त होता है। जिसके मल मूत्र और वीर्य अथवा मल मूत्र एवं छींक एक साथ ही गिरते हैं, उसकी आयु केवल एक वर्ष और शेष है ऐसा समझना चाहिए। जो व्‍यक्ति स्‍वप्‍न में इन्‍द्रनील मणि के समान रंगवाले नागों के झुण्‍ड को आकाश में इधर उधर फैला हुआ देखता है, वह छ:महीने भी जीवित नहीं रहता। जिसकी मृत्‍यु निकट होती है, वह अरून्‍धती और ध्रुव को भी नहीं देख पाता। जो अकस्‍मात् नीले पीले आदि रंगों को तथा कड़वे, खट्टे आदि रसों को विपरीत रूप में देखने और अनुभव करने लगता है, वह छ: महीने में मृत्‍यु का ग्रास बनता है। वीर्य, नख और नेत्रों का कोना – यह सब यदि नीले या काले रंग के हो जाएं तो मनुष्‍य छठे मास में ही काल के गाल मे समा जाता है। जो मनुष्‍य स्‍वप्‍न में जल, घी और दर्पण आदि में अपने प्रतिबिम्‍ब का मस्‍तक नहीं देखता, वह एक मास तक ही जीवित रह पाता है। बुद्धि भ्रष्‍ट हो जाए, वाणी स्‍पष्‍ट न निकले, रात में इन्‍द्र धनुष का दर्शन हो, दो चन्‍द्रमा और दो सूर्य दिखाई दें तो यह सब मृत्‍यु सूचक चिन्‍ह हैं। हाथ से कान बन्‍द कर लेने पर जब किसी प्रकार की आवाज न सुनाई दे तथा मोटा शरीर थोड़े ही दिनों दुबला पतला और दुबला पतला शरीर मोटा हो जाए तो एक मास में मृत्‍यु हो जाती। जिसे स्‍वप्‍न में भूत, प्रेत, पिशाच, असुर, कौए, कुत्‍ते, गीध, सियार, गधे और सूअर इधर उधर खाते और ले जाते हैं, वह वर्ष के अन्‍त में प्राण त्‍याग कर यमराज का दर्शन करता है। जो स्‍वप्‍न काल में गन्‍ध, पुष्‍प और लाल वस्‍त्रों से अपने शरीर को विभूषित देखता है, वह उस दिन से केवल आठ मास तक जीवित रहता है। जो स्‍वप्‍न में धूल की रा‍शि, विमौट (दीमक का घर) अथवा यूपदण्‍ड पर चढ़ता है वह छठे महीने में मृत्‍यु को प्राप्‍त होता है। जो स्‍वप्‍न में अपने को तेल लगाये, मूड़ मुड़ाए देखता है और गद्हे पर चढ़े दक्षिण दिशा की ओर ले जाए हुए देखता है अथवा अपने पूर्वजों को इस रूप में देखता है उसकी मृत्‍यु छ: महीने में हो जाती है। गोस्‍वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित राम चरित मानस में उपरोक्‍त लक्षण का वर्णन रावण के विषय में पढ़ने को मिलता है।
जो स्‍वप्‍न में लोहे का डंडा और काला वस्‍त्र धारण करने वाले किसी काले रंग के पुरूष को अपने आगे खड़ा देखता है, वह तीन मास से अधिक जीवित नहीं रहता। स्‍वप्‍न में काले रंग की कुमारी कन्‍या जिस पुरूष को अपने बाहुपाश में कस ले वह एक माह में परलोक सिधार जाता है। जो मनुष्‍य स्‍वप्‍न में वानर की सवारी पर चढ़कर पूर्व दिशा की ओर जाता है वह पॉंच दिन में ही संयमनी पुरी को देखता है।
कान के नीचे की मांसल लटक मांसल होते हुए भी एक निश्चित दृढ़ता लिए हुए होती है यदि यह मांसल लटक अपनी दृढ़ता खोकर थुलथुली होकर इधर उधर ढलकने लगे तो भी मृत्‍यु तीन माह के भीतर होने का आभास निश्चित है। मृत्‍यु एक अटल सत्‍य है यह सर्वविदित् है, परन्‍तु मृत्‍यु के भी तीन प्रकार बताए गए हैं- आदिदैविक, आदिभौतिक और आध्‍यात्मिक। आदिदैविक और आदिभौतिक मृत्‍यु योगों को तन्‍त्र और ज्‍योतिषीय उपायों द्वारा टाला जा सकता है परन्‍तु आध्‍यात्मिक मृत्‍यु के साथ किसी भी प्रकार का छेड़ छाड़ संभव नहीं। महाभारत में इस प्रकार की कथा आती है कि अश्‍वत्थामा ने उत्‍तरा के गर्भ में स्थित भ्रूण को लक्षित किया तो श्री कृष्‍ण ने उसे पुन: जीवन दान दिया परन्‍तु उन्‍हीं श्री कृष्‍ण ने अपने प्रिय अर्जुन के पुत्र अभिमन्‍यु को जीवन दान नहीं दिया । अत: मृत्‍यु के लक्षण चिन्‍हों के प्रकट होने पर ज्‍योतिषीय आकलन के पश्‍चात् उचित निदान करना चाहिए।

अमित प्रजापति
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Saturday, September 5, 2009

स्‍नेह बंधन की पराकाष्‍ठा - श्राद्ध

जन्‍म प्राप्ति से मृत्‍यु तक माता-पिता का बच्‍चों के प्रति स्‍नेह उन्‍हें जीवन में पल-पल संघर्ष के प्रेरित करता है। माता-पिता का बच्‍चों के प्रति स्‍नेह ही बच्‍चों को अच्‍छी शिक्षा, सुखसुविधाओं के साधनों को इकट्ठा कर उन्‍हें ज्‍यादा से ज्‍यादा खुश देखने के लिए जीवन की दुष्‍वारियों से पार पाने की शक्ति देता है। माता-पिता तो अपने कर्तव्‍य का यथा शक्ति पालन कर इस दुनिया से विदा हो जाते हैं और जीवन की आपाधापी में वह समय कब आकर चला जाता है पता ही नहीं चलता और अक्‍सर उनके चले जाने के बाद ही बच्‍चों को अपने माता-पिता के अपने प्रति प्रेम का अहसास होता है।बच्‍चों का अपने माता-पिता दादा-दादी बल्कि और उनके भी पूर्वजों के प्रति अपने प्रेम, सम्‍मान और धन्‍यवाद् व्‍यक्‍त करने के धार्मिक स्‍वरूप को ही हम श्राद्ध के रूप में जानते हैं। सारे विश्‍व में अपने पूर्वजों के प्रति मनुष्‍य के ऐसे अनन्‍य प्रेम संबंधों को मृत्‍यु पर्यन्‍त भी निभाने की परम्‍परा एकमात्र भारतीय संस्‍कृति में ही देखने को मिलती है।
अक्‍सर श्राद्ध के विषय में सवाल मन में आता है कि मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्‍त होते हैं; फिर श्राद्धकाल में ये अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच जाते हैं। जो लोग यहॉं मरते हैं, उनमें से कितने ही इस लोक में जन्‍म ग्रहण करते हैं कितने ही पुण्‍यात्‍मा स्‍वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्‍मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं। यमलोक या स्‍वर्गलोक में रहने वाले पितरों को भी तब तक भूख प्‍यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता पिता से तीन पीढ़ी के अन्‍तर्गत रहते हैं – जब तक वे श्राद्धकर्ता पुरुष के – मातामह, प्रमातामह या वृद्धप्रमातामह एवं पिता, पितामह या प्रपितामाह पद पर रहते हैं तबतक श्राद्धभाग ग्रहण करने के लिए उनमें भूख-प्‍यास की अधिकता रहती है।पितृलोक या देवलोक के पितर तो श्राद्धकाल में सूक्ष्‍म शरीर से आकर श्राद्धीय ब्राणों के शरीर मे स्थित होकर श्राद्धभाग ग्रहण करते हैं परंतु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग में स्थित हैं या जन्‍म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्‍य पितर आकर ग्रहण करते हैं और जीव जहॉं जिस शरीर में होता है वहॉं तदनुकूल भोग की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुँचातें हैं।
ये दिव्‍य पितर नित्‍य एवं सर्वज्ञ होते हैं। अग्निष्‍वात्‍त, बर्हिषद्, आज्‍यप, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयन्‍तुन, श्राद्धभुक तथा नान्‍दीमुख। आदित्‍य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनीकुमार भी केवल नान्‍दीमुख पितरों का छोड़कर शेष सभी को तृप्‍त करते हैं। ये पितृगण ब्रह्माजी के समान बताये गये हैं; अत पद्मयोनि ब्रह्माजी उन्‍हे तृप्‍त करने के पश्‍चात् सृष्टिकार्य प्रारंभ करते हैं।
इनके सिवा, दूसरे भी ऐसे मर्त्‍य – पितर होते हैं, जो स्‍वर्गलोक में निवास करते हैं। वे दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक तो सुखी हैं और दूसरे दुखी। मर्त्‍यलोक में रहने वाले वंशज जिनके लिए जिनके लिए श्राद्ध करते हैं और दान देते हैं वे सभी हर्ष में भरकर दवताओं के समान प्रसन्‍न होते हैं। जिनके लिए उनके वंशज कुछ भी दान नहीं करते, वे भूख प्‍यास से व्‍याकुल और दुखी देखे जाते हैं। जब प्रमादी वंशज पितरों का तर्पण नहीं करते, तब उनके पितर स्‍वर्ग में रहने पर भी भूख प्‍यास से व्‍याकुल हो जाते हैं; फिर जो यमलोक में पड़े हैं, उनके कष्‍ट का तो कहना ही क्‍या है ?
यदि मनुष्‍य पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्‍य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह के उद्देश्‍य से श्राद्ध तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और माता से लेकर दिव्‍य पितरों तक सभी पितर तृप्‍त हो जायेंगे। अमावस के दिन वंशजों द्वारा श्राद्ध और पिण्‍ड पाकर पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहेगी । सूर्य देव के कन्‍या राशि पर स्थित रहते समय अश्विन कृष्‍ण पक्ष (पितृ पक्ष) में जो मनुष्‍य मृत्‍यु तिथियों पर पितरों के लिए श्राद्ध करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति बनी रहेगी। उस समय शाक के द्वारा भी जो मनुष्‍य श्राद्ध नहीं करता उसे कठिनाईयों जैसे संतान आभाव व धन आभाव आदि का सामना करना पड़ता है।यदि मनुष्‍य गया शीर्ष में जाकर एक बार भी श्राद्ध कर देंगे तो उसके प्रभाव से सभी पितर सदा के लिए तृप्‍त हो जाते हैं।
उत्‍तम कर्मों से उपार्जित धन से पितरों का श्राद्ध करना ही पुण्‍य लाभ दिलाता है। छल कपट चोरी और ठगी से कमाये हुए धन से कदापि श्राद्ध न करें। श्राद्ध श्रद्धा से किए जाएं तो पुण्‍य फल दायी होते हैं।श्राद्ध करते समय मन में पितरों को सद्गति, मोक्ष, आगे प्राप्‍त होने वाले जन्‍म में भगवद्भक्ति, प्रभु भक्ति व प्रेम संसकार, धर्मनिष्‍ठा जैसे उत्‍कृष्‍ठ भगवद् आर्शीवाद भगवान से पितरों को प्राप्‍त हों ऐसी कामना और प्रार्थना भी श्राद्ध कर्ता के मन में हों तो निसंदेह पितरों को शांति प्राप्‍त होती है, इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए। ऐसा कहा जाता है जिस कुल किसी एक मनुष्‍य को गुरू कृपा प्राप्‍त हो और वह गुरू से दीक्षित हो तो उस दीक्षा प्राप्‍त मनुष्‍य की अगली पिछली सात पीढ़ीयों का उद्धार होता है अत यह वर्णन करना अतयन्‍त प्रासांगिक है कि कर्मकाण्‍ड के साथ प्रभु शरण और भगवद् चरणों में पूर्ण समर्पण ही जीवन का मूल सार है।



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Sunday, August 23, 2009

ईश किरन्

शास्‍वत्ता,
बदलती रहती है वसन्,
और,
प्रकट होती रहती है,
निरन्‍तर, नये वेश में ।।

हम चमत्‍कृत हो जाते हैं,
नित् नये परिधान देखकर,
नित् नये आयाम् देखकर ।
हम् अभिभूत् हो उठते हैं,
आभा रश्मियों की अठ्खेलियों से ।।

हम खो जाते हैं, बदलते रंगों के
अलग-अलग भावों में ।
हम मनमोहित हो जाते हैं,
उतरती – चढ़ती कलाओं से ।
हम विस्मित् हो डूबे रहते हैं,
सौंदर्य में श्रृंगार में ।।

हमारी दृष्टि नहीं पहुँच नहीं पाती है,
इस आवरण के पार ।
जहॉं इस सारे संचलन का मूल है ।

काश,
हम समझ सकें,
उस शास्‍वत् ध्रुव के चारों ओर ही,
हर नया सृजन् है ।।

Monday, August 17, 2009

संत सुगंध

सन्त समर्पित करते तुमको, श्रद्धा सुमन हमारे।
तुमसे सीखा जीवन दर्शन, अहोभाग्य हमारे।।

सेवा, क्षमा, दया, धर्म, हैं जिनके जीवन का सिद्धांत।
उनके ह्रदय को दिया संबल, थे ऐसे संत ह्रदया राम।।

चीरा अंधियारे कलियुग को, दिया ज्ञान प्रकाश।
भोतिकवादी होती दुनिया को, फिर से सिखलाया राम नाम।।

जन सेवा की हिंद परम्परा की, झलक यहॉं दिखलाई।
संत ह्रदयाराम नगर में, आज भी संत सुगंध समाई।।

संत आज तुम काल प्रभाव से, हमसे दूर चले गए।
पर सच मानो जन की नम ऑंखों से, हर ह्रदय में बस गए।।

मुश्किल है अब तुम बिन जीना, डर लगता है हमको।
दो आशीष जीतें कलुषित मन, काटें अंतर तम को।।

संत ह्रदयाराम जी की स्‍मृति में मेरे गुरू श्री भालचंद्र जी सहस्‍त्रबुद्धे जी की प्रेरणा से सभी संत जनों के श्री चरणों में उन्‍हीं सभी संत जनों के आर्शीवाद से सप्रेम भेंट ।।

Sunday, August 16, 2009

चोरी और सीना जोरी

सोनिया जी,
एक अजीब सी उलझन में पड़ गईं ।
एक हिन्दी मुहावरे का अर्थ क्या है,
इस पचड़े में उलझ गईं।
कईं लोगों से पूछने पर भी,
अर्थ समझने की हर कोशिश बेकार गई ।
‘चोरी और सीना जोरी’
कहावत का अर्थ क्या होता है,
समझते समझते हार गईं ।

वामपंथियों को है अच्छा भाषा ज्ञान,
सोनिया जी को था यह भान ।
सोनिया जी की उलझन,
सुलझेगी, मिट जाएगी किलकिल ।
वामपंथियों के समर्थन से,
‘डील’ कर लेंगे, चाहे जो भी हो मुशिकल ।
कांग्रेसियों को थी उम्मीद,
फिर मन जाएगी बकरीद ।

परन्तु, वामपंथियों की फिसलन,
खड़ी कर गया नई उलझन ।
मामला सुलझेगा कैसे,
सोच में थे लालू प्रसाद लल्लन ।

तभी अचानक,
भूलकर अपने सब अपमान,
अमरसिंह को हो आया ज्ञान ।
जिनको कभी कहा करते थे विदेशी,
उन्हीं से बोले उलझन कैसी ।
इस संसार में भयंकर ‘माया’ जाल है,
और, माया पति की पत्नि ही,
इस समस्या का निकाल है।

४-५ दिन के अथक परिश्रम से,
व्यवस्था जमाई गई ।
लोकतंत्र की कीमत पर,
सरकार बचाई गई ।
परन्तु अभी मुख्य काम तो होना बाकी था,
सोनिया जी का सवाल ज्यों का त्यों था।


इसीलिए, अगले दिन,
उन सांसदों पर इल्जाम लगाए
जिन्होंने करोंड़ों पर लात मार कर,
कांग्रेसियों को थे आइने दिखलाए।
जिनका इमान वो करोंड़ों में नहीं खरीद पाए,
वो तीनों सांसद ही,
संसद की अवमानना के दोषी कहलाए।

अब सोनिया जी की टयूबलाइट जल चुकी थी,
अमर सिंह जी और लालू जी की बाछें खिल चुकीं थीं।

सोनिया जी बोलीं,
चोरी और सीना जोरी क्या होती है,
इसका मतलब तो बड़ा सीधा है,
और यह अर्थ अब मेरे साथ-साथ,
पूरे हिंदुस्तान को भी पता है।
ब्राण्‍डेड हुआ घर संसार

आज अगर हम कहें कि हमारा जीवन ब्राण्‍डेड हो गया है तो यह कोई अतिश्‍योक्ति नहीं होगी । विज्ञापन इस हद तक हमारे निर्णयों को प्रभावित करने लगें हैं कि हम विज्ञापन देखकर यह तय करते हैं कि हमें किस साबुन से नहाना है, कौन से ब्राण्‍ड का टूथपेस्ट लेना है, कौन सा नमक खाना है, किस ब्राण्‍ड की जीन्स-टी शर्ट लेना है, कौन सा जूता पहनना है और किस ब्राण्‍ड की मोटर साइकिल खरीदना है । सुबह उठ कर ऑंख खोलने से लेकर भागती दौड़ती दिनचर्या समाप्त कर रात को जिस बिस्तर पर आप सोते हैं वहॉं तक आप किस ब्राण्‍ड का उपयोग करें यह बताने के लिए एडवर्टाइज इण्‍डस्‍ट्री दिन रात कड़ी मेहनत करती है । यह इण्‍डस्‍ट्री गजब के प्रतिभाशाली लोगों की अथक मेहनत का नतीजा है।

क्रांतीकारी परिवर्तन:-
आधुनिक जीवन शैली ने सामाजिक जीवन के परिदृश्‍य को नए आयाम दिये हैं । आज न सिर्फ आम आदमी की जीवन शैली बदल चुकी है वरन् शिक्षा, चिकित्सा, यातायात,मनोरंजन एवं व्यापार आदि सभी क्षैञों में नए प्रयोग हो रहे हैं । जरूरत की वस्तुओं के आदान प्रदान से शुरू हुई व्यापारिक व्यवस्था आज टेली शॉपिंग, चेन मार्केटिंग, बिजनेस मॉल, होम डिलेवरी सिस्टम जैसे न जाने कितने प्रयोगों को आजमा चुकी हैं।
‘ब्राण्‍ड कॉन्‍सेप्‍ट’ भी इसी कड़ी का एक सफल प्रयोग है । किसी व्यापारिक उत्पाद की एडवर्टाइज कम्‍पनी द्वारा एक ऐसी इमेज तैयार की जाती है कि उस ब्राण्‍ड को अपनाना जन सामान्य के लिए सम्मान जनक स्टेटस सिम्बॉल समझा जाता है । सफलता के कई शिखरों को रचकर एडवर्टाइज इण्‍डस्‍ट्री आज सफलतम् उद्योगों में से एक है । आज इस प्रोफेशान में अपना कैरियर बनाना नाम, दाम और शोहरत् प्राप्त करने की गारंटी है ।
प्रताप बोस जो कि ओगिल्वी इंडिया के सी.ई.ओ. हैं कहते हैं कि, ‘‘पन्‍द्रह वर्ष पूर्व तक एडवर्टाइजिंग क्षैत्र को पूर्व निर्धरित उपेक्षापूर्ण नजरिए से देखा जाता था और एडवर्टाइजिंग क्षेत्र को केरियर के तौर पर अपनाने वाले लड़के-लड़कियों के बारे में सोचा जाता था कि वो सिर्फ मौज मस्ती और अपनी गैर जिम्मेदाराना सोच के चलते इस क्षेत्र में जा रहे हैं, पर अब ऐसा नहीं है ।’’
आज धारणा बदल चुकी है, लोगों का सोचना है कि एडवर्टाजिंग क्षेत्र में काम करने के लिए काम्पटेटिव व क्रियेटिव सोच, मनोवैज्ञानिक समझ, अच्छा भाषा ज्ञान, साहित्यिक दृप्टिकोण, संगीत की समझ, कम्प्यूटर टेक्नेलाजी के ज्ञान के साथ-साथ मार्केटिंग एवं बिजनेस की अच्छी समझ की भी आवश्‍यकता है, तभी विज्ञापनों को विकसित तथा जन-जन तक पहुँचा कर उत्पाद को लोकप्रयि बनाया जा सकता है ।
एड गुरू व लंदन इंस्टीट्यूट आफ कॉरपोरेट कम्यूनिकेशन के वर्तमान चेयरमेन अलीक पद्मसी का कहना है,‘‘मेरा मानना है कि इण्डियन एड इण्‍डस्‍ट्री ने लोकल फ्‍लेवर का मिश्रण कर एक नया आयाम रच दिया है। हालांकि भारत में काम करने वाली ज्यादातर एजेंसियॉं विदेशी मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा संचालित हैं, पर इन एजेंसियों द्वारा तैयार किये जा रहे विज्ञापनों की गुणवत्ता श्रेप्ठतम् व ज्यादा कमर्शियल प्रभाव पैदा करने वाली है। कम्प्यूटर ग्राफिक्स ने एड फिल्म बनाने के परम्परागत तरीकों को बदल दिया है। अब नई तकनीकों के कारण विज्ञापनों में गुणवत्ता व चमत्कारिक प्रभाव देखने को मिलता है।’’
आज भारतीय बाजार में अलग-अलग ब्राण्ड्स की भरमार है। इन ब्राण्ड्स के बारे में लोगों तक जानकारी पहुँचानेमें एडवर्टाइजिंग कम्पनियॉं ही मुख्य भूमिका निभाती हैं। आज के तेजी से बदलते और प्रतियोगी माहोल में आगे बने रहने के लिए किसी भी कम्पनी को ऐसे विशेषज्ञों की आवश्‍यकता होती है जो लोगों की जरूरतों और इच्छाओं को समझ कर बाजार में उपलब्ध अवसरों का फायदा उठा सकें। कम से कम लागत में तैयार उत्पाद को शीघ्र अति शीघ्र ग्राहकों का मन पसंद उत्पाद बना दें व उसे सफलतम् ब्राण्‍ड के रूप में स्थापित कर दें।
सुभाप कामद जो कि बेट्स डेविड इन्टरप्राइजेज के सी.ई.ओ. हैं का कहना है कि,‘‘एडवर्टाइजिंग इण्‍डस्‍ट्री की सफलता अर्थव्यवस्था की सफलता की अनुगामी है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था उन्नत होती है, ग्राहक की क्रय शक्ति बढ़ती है, नई-नई उपलब्धियों के लिए मार्ग प्रशस्त होता है और परिणामत: एडवर्टाइजिंग और ब्राण्ड्स अधिक विकसित और सशक्त होते जाते हैं।’’

अभी और भी मंजिलें हैं :-
भारत में एडवर्टाइजिंग के बदलते हुए माहोल में अभी अनंत संभावनाऍं नजर आती हैं। भारत में कन्ज्यूमर मार्केट अभी फलना फूलना शुरू हुआ है। ऐसे में अभी कई नए बदलाब,नई संभावनाऍं जन्म ले सकतीं हैं। जानकारों का मानना है अगले पन्‍द्रह सालों में भारतीय एडवर्टाइजिंग इण्‍डस्‍ट्री दुनिया की बड़ी एडवर्टाइजिंग इण्‍डस्‍ट्रीस में से एक होगी। अलीक पद्मसी का कहना है कि,‘‘ इस बढ़ती व्यापार व्यवस्था को सही दिशा देने के लिए कुछ नए स्पेशलाइज्डकोर्स शुरू करने की आवश्‍यकता है, खासकर उन युवाओं के लिए जो इस क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहते हैं।’’
क्रियेटिव डिपार्टर्मेंट, आइडिया मेकर,स्‍ट्रेटिजी प्लानिंग डिपार्टर्मेंट, ह्यूमन रिसोस डिपार्टर्मेंट व कोआडिनेटरस आदि नए स्पेशलाइज्ड फील्ड हैं जो नई एडवर्टाइज इण्‍डस्‍ट्री के महत्वपूर्ण विभाग हैं, जिन्हे स्पेशलाइज्ड लोग संभालते हैं। इन सब विभागों का कुछ समय पहले तक अस्तित्व नहीं था और आगे आने वाले समय में कई और नए स्पेशलाइज्ड विभागों की खोज होगी ताकि नई दिशाऍं तय की जा सकें।
प्रताप बोस कहते हैं, ‘‘आज तेजी से बदलती बाजार व्यवस्था और विभिन्न इण्स्ट्री के उत्पादों और उपभोक्ताओं की जरूरतों के तेजी से बदलते स्वरूपों के कारण इण्‍डस्‍ट्री मेनेजमेंट में निश्चित प्रकार की जाब व्यवस्था नहीं है।’’

लोकल फ्‍लेवर का तड़का :-
एक समय था जब भारतीय मीडिया में दिखाने के लिए कोई एड बनता था तो विदेशी एड का भारतीय भाषा में अनुवाद करके दिखा दिया जाता था। उसे भारतीय परिवेश से जोड़ने के लिए नई रचनात्मकता या तो थोड़ी बहुत या बिलकुल नहीं जोड़ी जाती थी। परन्तु नए क्रियेटिव हेड्स की पीढ़ी के काम में भारतीयता की झलक देखी जा सकती है। आज भारतीय एडवर्टाइजिंग इण्‍डस्‍ट्री न सिर्फ अपनी जड़ों को पहचान रही है बल्कि पारम्परिक व सामाजिक विचारधारा को अपनाकर उपभोक्ताओं से गहरा रिश्‍ता जोड़ चुकी है।
आज भारतीय एडवर्टाइज इण्स्ट्री अन्तराष्‍ट्रीय उत्पादों के लिए भी न सिर्फ एड तैयार कर रही है बल्कि रचनात्मकता की दृष्टि से अलग पहचान भी बना रही हैं। अत: भारतीय एडवर्टाइजिंग इण्‍डस्‍ट्री को ग्लोबल प्लेयर के रूप में देखा जाने लगा है। निर्भीक सिंह जो ग्रे एशिया पेसिफिक के चेयरमेन हैं कहते हैं कि, ‘‘अन्तराष्‍ट्रीय स्तर पर हमें काफी कुछ करना है पर अगले कुछ सालों में हम चाइनीज एडवर्टाइसिंग इण्‍डस्‍ट्री के समकक्ष होंगें।’’
सिर्फ अच्छे एड़ बना लेना या दूसरे देशों की एडवर्टाइजिंग इण्‍डस्‍ट्री से प्रतिस्पर्धा करना ही कसौटी नहीं है बल्कि आप अपने विज्ञापनों के द्वारा लोगों को उस उत्पाद के साथ कितना जोड़ पाते हैं जिस उत्पाद के लिए वह विज्ञापन बना है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। भारतीय एडवर्टाइजिंग इण्‍डस्‍ट्री इस बात को समझते हुए रचनात्मकता की भारतीय प्रतिभा का उपयोग करते हुए एक नई ॐचाई छूने को है। इस इण्‍डस्‍ट्री की सफलता नजर आने लगी है। अब देखना यह है कि यह सफलता हमें कहॉं ले जाती है ।
दिशाहीन नेतृत्व

आज सारी दुनिया के मन में एक बड़ा सवाल है कि आखिर आतंकवाद और इस्लाम में रिश्‍ता क्या है ? आज सारी दुनिया के लोगों के मन में शक क्यों है कि आम मुसलमान ;जो अलग-अलग देशों में नागरिक हैं और आम तौर पर सामाजिक जीवन जीते हैं आतंकवादियों से सहानुभूति रखते हैं । आज संसार में रहने वाले अन्य धर्मावलम्बियों को यह शक क्यों है कि इस्लाम उनके खिलाफ है। भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस या अन्य कोई भी देश हर जगह मुसलमानों की सोच अलगाववादी क्यों है ?
पत्रकारिता के क्षेत्र में दुनिया की मानी हुई शाख्सीयत राबर्ट मर्डोक के कथन को अभी लोग भूले नहीं होंगे जिसमें उन्होंने दुनिया के अलग-अलग देशों में रह रहे मुसलमानों की राष्‍ट्रवादिता पर शक जाहिर किया था।
सवाल यह भी उठता है कि जब हर ऑंख इस्लाम को शक की दृष्टि से देख रही है, तो ऐसे में जो मुसलमानों के धार्मिक व राजनैतिक रहनुमा हैं वो क्या सोचते हैं ? ऐसे में जो मुस्लिम बुद्धीजीवी वर्ग है वो क्या सोचता है ? वो मुसलमान जो आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, जो प्रगतिवादी समझे जाते हैं, वो क्या विचार रखते हैं ? क्या इन प्रबुद्ध समझे जाने वाले, व धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक हैसियत रखने वाले मुसलमानों को इस्लाम की बिगड़ती छवि का थोड़ा भी मलाल है ? क्या इन इस्लामी प्रतिनिधियों को इस बात की थोड़ी भी परवाह है कि बाकी दुनिया के साथ इस्लामी दुनिया के रिश्‍ते इस हद तक भयावह हो गये हैं कि पूरी दुनिया एक जंग के मैदान में बदल गई है। अगर इन मस्लिम प्रतिनिधियों को इन सब बातों की थोड़ी भी चिंता है तो क्या वह कट्टरपंथियों का पुरजोर विरोध करना अपना कर्तव्‍य नहीं समझते। क्या इन प्रबुद्ध मुस्लिमों को यह नहीं लगता कि उनकी यह चुप्पी ही समस्त इस्लामी दुनिया को शक के दायरे में लाती है ? क्या उन्हें यह भी नहीं समझ में आता कि सारी दुनिया में फैलते इस नफरत के जहर का परिणाम सिर्फ गैर इस्लामी दुनिया को ही नहीं बल्कि मुसलमानों को ही ज्यादा भुगतना पड़ेगा ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि मुस्लिम समाज पर उनके धार्मिक नेतृत्व की निरंकुश हुकूमत रही है। इस धार्मिक नैतृत्व ने मुसलमानों को न सिर्फ बाहरी दुनिया से संवाद करने व व्यवहार निभाने से रोका बल्कि मुसलमानों को बाकी दुनिया के खिलाफ कर दिया। बड़ेदुर्भाग्‍य की बात है कि इस्लाम के मानने वालों ने कभी समय की परवाह नहीं की। दुनिया के बाकी धर्मों ने जहॉं बदलते समय के साथ अपने रीति रिवाजों को बदलने में संकोच नहीं किया वहीं मुस्लिम समाज इस्लाम के जन्म के समय के रिवाजों को पकड़े खड़ा है। अपनी इसी कट्टरता के चलते मुसलमान समाज बाकी दुनिया से पिछड़ गया ।
विडम्बना यह भी है कि इन उलेमाओं, काजियों से आम मुसलमान तो खौफ खाता ही है, उच्‍चशिक्षित प्रगतिवादी समझे जाने वाला मुस्लिम बुद्धीजीवी भी इन धार्मिक आकाओं से भयभीत नजर आता है। जो जावेद अक्‍ख़तर आये दिन हिन्दू संगठनों को नई-नई सीख देते और हिंदुओं की कट्टरता को कोसते नहीं थकते, उन्हीं जावेद अक्‍ख़तर का गला तब सूख जाता है जब दिल्ली के शाही इमाम पूरे सूचना तंत्र के सामने शबाना आज़मी (जावेद अक्‍ख़तर की पत्नी) को ‘‘रण्डी’’ जैसे अपमान जनक शब्‍द से सम्बोधित करते हैं । शबाना आज़मी खुद जो स्पप्ट बोलने के लिए जानीं जातीं हैं और आये दिन हिन्दू संस्कृति में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए नए-नए विचार पेश करती नजर आती हैं, इतनी बड़ी गाली सुनने के बाद भी चुपचाप अपने घर में बैठ जातीं हैं।
राष्‍ट्रीय महिला आयोग व अन्य महिला संगठनों की भी चूं नहीं निकलती जबकि यही महिला संगठन वेलेन्टाइन डे पर बजरंग दल और विश्‍व हिंदू परिषद् से दो-दो हाथ करने के लिए अपने हाथों में लाठियॉं लेकर सड़कों पर घूमते नजर आते हैं ।
प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनबीर को हिंदू धर्म में तोकुरीतियॉं नजर आतीं हैं और वो ‘‘पोंगा पंडित’’ जैसे नाटकों को पूरी दुनिया में मंचन करते फिरते हैं पर उन्हें मुस्लिम समाज में फैली अशिक्षा, हलाला, एक पुरूप की चार-चार शादियॉं, मुस्लिम समाज में परिवारों की आर्थिक स्थिती ठीक न होने पर भी ज्यादा बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति, पोलियो उन्मूलन जैसे सामाजिक व राष्‍ट्रीय महत्व के कार्यों का अंधा विरोध जैसी कुरीतियॉं नजर नहीं आतीं ।
मकबूल फिदा हुसैन को अपनी रचनात्मकता दिखाने के लिए भी हिन्दूओं की आस्थाओं को ठेस पहॅचाना जरूरी नजर आता है और अगर हिन्दू विरोध में अपनी आवाज उठाते हैं तों हुसैन साहब को एक कलाकार की अभिव्यिक्त की स्वतंत्रता छिनती नजर आती है। मगर हुसैन साहब से कोई पूछे कि उनके स्वतंत्रता संबंधी यही विचार उस समय कहॉं चले गए थे जब मुसलमानों के आपत्ति करने पर उन्होंने अपनी फिल्म से एक गाना हटा लिया । मुस्लिम बुद्धीजीवियों के यह दोहरे पैमाने भी क्या मुस्लिम समाज के लिए उतने ही आत्मघाती नहीं है जितने तालिबानियों और मुजाहिदीनों के कारनामे आत्मघाती है, यह सवाल भी स्वयं मुसलमानों के लिए ही विचारणीय ज्यादा है।
अमेरिका के वर्ल्‍ड टेड सेंटर और ब्रिटेन की भूमिगत रेल में हुए बम हादसों की जांचों में यह साबित हो चुका है कि विस्फोटों साजिश की करनेवालों और विस्फोटों को अंजाम देने वाले आतंकी उच्च शिक्षा प्राप्त मुस्लिम युवा थें।
ऐसे हालातों में अगर अब भी मुसलमानी नेतृत्व अपनी नीतियों और रीतियों में बदलाव की जरूरत महसूस नहीं करता है तो आगे आने वाले समय में इस्लामी दुनिया को बाकी दुनिया के साथ और बाकी दुनिया से ज्यादा नुकसान उठाना होगा ।