वन्‍दे मातरम् !!!!






Sunday, August 16, 2009

दिशाहीन नेतृत्व

आज सारी दुनिया के मन में एक बड़ा सवाल है कि आखिर आतंकवाद और इस्लाम में रिश्‍ता क्या है ? आज सारी दुनिया के लोगों के मन में शक क्यों है कि आम मुसलमान ;जो अलग-अलग देशों में नागरिक हैं और आम तौर पर सामाजिक जीवन जीते हैं आतंकवादियों से सहानुभूति रखते हैं । आज संसार में रहने वाले अन्य धर्मावलम्बियों को यह शक क्यों है कि इस्लाम उनके खिलाफ है। भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस या अन्य कोई भी देश हर जगह मुसलमानों की सोच अलगाववादी क्यों है ?
पत्रकारिता के क्षेत्र में दुनिया की मानी हुई शाख्सीयत राबर्ट मर्डोक के कथन को अभी लोग भूले नहीं होंगे जिसमें उन्होंने दुनिया के अलग-अलग देशों में रह रहे मुसलमानों की राष्‍ट्रवादिता पर शक जाहिर किया था।
सवाल यह भी उठता है कि जब हर ऑंख इस्लाम को शक की दृष्टि से देख रही है, तो ऐसे में जो मुसलमानों के धार्मिक व राजनैतिक रहनुमा हैं वो क्या सोचते हैं ? ऐसे में जो मुस्लिम बुद्धीजीवी वर्ग है वो क्या सोचता है ? वो मुसलमान जो आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, जो प्रगतिवादी समझे जाते हैं, वो क्या विचार रखते हैं ? क्या इन प्रबुद्ध समझे जाने वाले, व धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक हैसियत रखने वाले मुसलमानों को इस्लाम की बिगड़ती छवि का थोड़ा भी मलाल है ? क्या इन इस्लामी प्रतिनिधियों को इस बात की थोड़ी भी परवाह है कि बाकी दुनिया के साथ इस्लामी दुनिया के रिश्‍ते इस हद तक भयावह हो गये हैं कि पूरी दुनिया एक जंग के मैदान में बदल गई है। अगर इन मस्लिम प्रतिनिधियों को इन सब बातों की थोड़ी भी चिंता है तो क्या वह कट्टरपंथियों का पुरजोर विरोध करना अपना कर्तव्‍य नहीं समझते। क्या इन प्रबुद्ध मुस्लिमों को यह नहीं लगता कि उनकी यह चुप्पी ही समस्त इस्लामी दुनिया को शक के दायरे में लाती है ? क्या उन्हें यह भी नहीं समझ में आता कि सारी दुनिया में फैलते इस नफरत के जहर का परिणाम सिर्फ गैर इस्लामी दुनिया को ही नहीं बल्कि मुसलमानों को ही ज्यादा भुगतना पड़ेगा ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि मुस्लिम समाज पर उनके धार्मिक नेतृत्व की निरंकुश हुकूमत रही है। इस धार्मिक नैतृत्व ने मुसलमानों को न सिर्फ बाहरी दुनिया से संवाद करने व व्यवहार निभाने से रोका बल्कि मुसलमानों को बाकी दुनिया के खिलाफ कर दिया। बड़ेदुर्भाग्‍य की बात है कि इस्लाम के मानने वालों ने कभी समय की परवाह नहीं की। दुनिया के बाकी धर्मों ने जहॉं बदलते समय के साथ अपने रीति रिवाजों को बदलने में संकोच नहीं किया वहीं मुस्लिम समाज इस्लाम के जन्म के समय के रिवाजों को पकड़े खड़ा है। अपनी इसी कट्टरता के चलते मुसलमान समाज बाकी दुनिया से पिछड़ गया ।
विडम्बना यह भी है कि इन उलेमाओं, काजियों से आम मुसलमान तो खौफ खाता ही है, उच्‍चशिक्षित प्रगतिवादी समझे जाने वाला मुस्लिम बुद्धीजीवी भी इन धार्मिक आकाओं से भयभीत नजर आता है। जो जावेद अक्‍ख़तर आये दिन हिन्दू संगठनों को नई-नई सीख देते और हिंदुओं की कट्टरता को कोसते नहीं थकते, उन्हीं जावेद अक्‍ख़तर का गला तब सूख जाता है जब दिल्ली के शाही इमाम पूरे सूचना तंत्र के सामने शबाना आज़मी (जावेद अक्‍ख़तर की पत्नी) को ‘‘रण्डी’’ जैसे अपमान जनक शब्‍द से सम्बोधित करते हैं । शबाना आज़मी खुद जो स्पप्ट बोलने के लिए जानीं जातीं हैं और आये दिन हिन्दू संस्कृति में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए नए-नए विचार पेश करती नजर आती हैं, इतनी बड़ी गाली सुनने के बाद भी चुपचाप अपने घर में बैठ जातीं हैं।
राष्‍ट्रीय महिला आयोग व अन्य महिला संगठनों की भी चूं नहीं निकलती जबकि यही महिला संगठन वेलेन्टाइन डे पर बजरंग दल और विश्‍व हिंदू परिषद् से दो-दो हाथ करने के लिए अपने हाथों में लाठियॉं लेकर सड़कों पर घूमते नजर आते हैं ।
प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनबीर को हिंदू धर्म में तोकुरीतियॉं नजर आतीं हैं और वो ‘‘पोंगा पंडित’’ जैसे नाटकों को पूरी दुनिया में मंचन करते फिरते हैं पर उन्हें मुस्लिम समाज में फैली अशिक्षा, हलाला, एक पुरूप की चार-चार शादियॉं, मुस्लिम समाज में परिवारों की आर्थिक स्थिती ठीक न होने पर भी ज्यादा बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति, पोलियो उन्मूलन जैसे सामाजिक व राष्‍ट्रीय महत्व के कार्यों का अंधा विरोध जैसी कुरीतियॉं नजर नहीं आतीं ।
मकबूल फिदा हुसैन को अपनी रचनात्मकता दिखाने के लिए भी हिन्दूओं की आस्थाओं को ठेस पहॅचाना जरूरी नजर आता है और अगर हिन्दू विरोध में अपनी आवाज उठाते हैं तों हुसैन साहब को एक कलाकार की अभिव्यिक्त की स्वतंत्रता छिनती नजर आती है। मगर हुसैन साहब से कोई पूछे कि उनके स्वतंत्रता संबंधी यही विचार उस समय कहॉं चले गए थे जब मुसलमानों के आपत्ति करने पर उन्होंने अपनी फिल्म से एक गाना हटा लिया । मुस्लिम बुद्धीजीवियों के यह दोहरे पैमाने भी क्या मुस्लिम समाज के लिए उतने ही आत्मघाती नहीं है जितने तालिबानियों और मुजाहिदीनों के कारनामे आत्मघाती है, यह सवाल भी स्वयं मुसलमानों के लिए ही विचारणीय ज्यादा है।
अमेरिका के वर्ल्‍ड टेड सेंटर और ब्रिटेन की भूमिगत रेल में हुए बम हादसों की जांचों में यह साबित हो चुका है कि विस्फोटों साजिश की करनेवालों और विस्फोटों को अंजाम देने वाले आतंकी उच्च शिक्षा प्राप्त मुस्लिम युवा थें।
ऐसे हालातों में अगर अब भी मुसलमानी नेतृत्व अपनी नीतियों और रीतियों में बदलाव की जरूरत महसूस नहीं करता है तो आगे आने वाले समय में इस्लामी दुनिया को बाकी दुनिया के साथ और बाकी दुनिया से ज्यादा नुकसान उठाना होगा ।

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