वन्‍दे मातरम् !!!!






Sunday, July 14, 2013


आडवाणी के बिना भाजपा
आडवाणी जी का स्‍तीफा देना और वापस लेना दोनों ही घटनाओं ने ना सिर्फ भारतीय बल्कि अंतर्राष्‍ट्रीय राजनैतिक विचार मानस को मथ दिया । दोनों ही स्थितियों पर तरह तरह के कयास लगाए गए और लगाए जा रहे हैं और ऐसा हो भी क्‍यों ना, 1984 में 2 सीट जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी को 1986 से 1991 तक के अपने अध्‍यक्ष काल में 182 सीट जीतने वाली राष्‍ट्रीय पार्टी बना दिया । तभी तो भाजपा के श्री शत्रुघ्‍न सिन्‍हा ने आडवाणी जी के स्‍तीफा देने के बाद कहा कि आडवाणी जी के बिना भाजपा की कल्पना नहीं की जा सकती और पार्टी को इस उंचाई तक पहुंचाने वाले ऐसे व्यक्ति के बिना पार्टी के कई नेताओं को पहले जैसे उत्साह के साथ काम करने में कठिनाई होगी. सन् 1951 में डाक्‍टर श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की तब से 1957 तक आडवाणी पार्टी सचिव वा सन् 1973 से 1977 तक भारतीय जनसंघ के अध्‍यक्ष रहे । इसी दौरान 1975 में आपातकाल के दौरान वे 19 महीने जेल में भी रहे । सन् 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्‍थापना के बाद से 1986 तक आडवाणी पार्टी के महासचिव रहे । 1986 से 1991 तक के अपने अध्‍यक्ष काल के दौरान 1990 में सोमनाथ से अयोध्‍या तक रथयात्रा के दौरान उनकी गिराफ्‍तारी ने उनक कद वा लोकप्रियता को बढ़ा दिया । सन् 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जिन लोगों को अभियुक्त बनाया गया था उनमें आडवाणी का नाम भी शामिल है। लालकृष्ण आडवाणी तीन बार भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रह चुके हैं साथ ही चार बार राज्यसभा के और पांच बार लोकसभा के सदस्य रहे । सन् 1977 से 1979 तक पहली बार केंद्रीय सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में लालकृष्ण आडवाणी सूचना प्रसारण मंत्री रहे। लालकृष्ण आडवाणी सन् 1999 में एनडीए की सरकार में अटलबिहारी वाजपेयी के नेत़ृत्व में केंद्रीय गृहमंत्री बनाए गए और फिर इसी सरकार में उन्हें 29 जून, 2002 को उपप्रधानमंत्री पद का दायित्‍व सौंपा गया। वर्तमान में वो गुजरात के गांधीनगर संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के सांसद हैं वा एन डी ए की संसदीय दल के नेता हैं । कहने का तात्‍पर्य भारतीय जनता पार्टी के इतने अभिन्‍न अंग रहे श्री लाल कृष्‍ण आडवाणी के बिना क्‍या भारतीय जनता पार्टी की कल्‍पना की जा सकती है । जिस आडवाणी को पार्टी का लौह पुरुष कहा जाता हो क्‍या वह पद के मोह में या अपनी ही पार्टी के सदस्‍य से राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते स्‍वयं की वा पार्टी की साख को मटिया मेट कर सकता है । क्‍या आडवाणी जैसा रानीतिज्ञ इतनी बडी गल्‍ती कर सकता है कि उसके पार्टी को लिखे गए त्याग पत्र के पोस्‍टर दिल्‍ली में लग जाए जिसमें लिखा हो कि -मुझे नहीं लगता कि अब यह वही पार्टी रह गई है जो डॉ. मुखर्जी, दीनदयाल जी, नाना जी और वाजपेयी जी ने बनाई थी, जिसकी एकमात्र चिंता देश और उसके लोग थे। ज्यादातर लोग अब अपने निजी एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगे हैं। कुछ ऐसा ही हंगामा आडवाणी की सन् 2006 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की मजार पर जिन्‍ना को धर्मनिरपेक्ष कहे जाने पर हुआ था । आण्‍वाणी द्वारा जिन्‍ना को धर्मनिरपेक्ष कहे जाने का मामला हो या नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी की चुनाव प्रचार समिति का अध्‍यक्ष बनाए जाने पर सभी महत्‍वपूर्ण पदों से त्‍याग पत्र देने का मसला इन दोनों बातों का एक दूरगामी परिणाम यह हो सकता है कि चुनाव में भा ज पा नरेंद्र मोदी की आक्रमक छवि का फायदा ज्‍यादा से ज्‍यादा उठा सके और ज्‍यादा सीटें हसिल कर सके । अगर बहुमत मिला तो ठीक नहीं मिला तो फिर गठबंधन सरकार बनाते समय आडवाणी के नेतृत्‍व में फिर मिली जुली सरकार का निर्माण किया जा सके । क्‍योंकि यह नहीं भूला जाना चाहिए कि जिस तरह की हिंदूवादी छवि आज नरेंद्र मोदी की है इसी तरह की छवि किसी जमाने में खास तौर पर जिन्‍ना को धर्मनिरपेक्ष कहने के पहले आडवाणी की हुआ करती थी । इन सारे घटना क्रमों को आडवाणी का भारतीय जनता पार्टी के प्रति गहरे समर्पण के रूप में भी देखा जा सकता है कि पार्टी हित में उन्‍होंने अपनी छवि वा हितों को भी दांव पर लगा दिया । वास्‍तव में आडवाणी के बिना भारतीय जनता पार्टी के स्‍वरूप की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती ।