ज्योतिष और धर्म में दान का विशेष महत्व है दान की महिमा का वर्णन करते हुए हिन्दु धर्म ग्रन्थों में बहुत विस्तार से लिखा गया है। ज्योतिषीय दृष्टि से जब जन्म कुण्डलियों का आंकलन करते हैं तो कई बार देखने में आता है कि पूर्व जन्मों में जाने अनजाने में किए गए दुष्कर्मों के फलस्वरूप जब ग्रह दूषित हो कर कुप्रभाव दिखाते हैं और जीवन दुष्कर हो जाता है। ऐसे में प्रायश्चित स्वरूप अलग- अलग प्रकार के दान का विधान बताया है जैसे शनि ग्रह के लिए तेल में छाया दान, अलग- अलग ग्रहों से संबंधित द्रव्यों व धातुओं का दान इत्यादि। न सिर्फ प्रारब्ध के दुष्कर्मों के कुप्रभावों के निवार्णार्थ प्रायश्चित स्वरूप दान का महत्व है बल्कि भविष्य में आने वाले जीवन को सुखमय एवं आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति हेतु भी पुण्य संचय की दृष्टि से भी विभिन्न प्रकार के दान का महत्व बताया गया है।
दान व्यवस्था पूर्व जन्मों में की गई त्रुटियों के फलस्वरूप होने वाले कुप्रभावों की शांति कर भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है, वैचारिक रूप से व्यक्ति को सुदृढ़ बनाती है व व्यक्ति को सामाजिक कर्त्तव्य पालन के प्रति जागरूक करती है। मानवता के विकास में सहायक दान प्रक्रिया का स्वार्थी तत्वों द्वारा संकीर्ण व स्वार्थी विवेचन कर धन लिप्सा पूर्ति व कुत्सित कर्मों को करने व छिपाने का साधन बनाने का प्रयास किया गया जिससे इस प्रक्रिया के प्रति आम जनता में अविश्वास व विभ्रम की स्थिति पैदा हो गई।
इसी विभ्रम व अविश्वास के समाधान हेतु परम् विष्णु भक्त श्री नारद मुनि द्वारा एक श्लोक की विवेचना स्कन्द पुराण में वर्णित है। कथानुसार सौराष्ट्र के राजा धर्मवर्मा को कई वर्षों की तपस्या के बाद आकाशवाणी द्वारा श्लोक कहा गया –
द्विहेतु षडधिष्ठानं षडङ व़ द्विपाकयुक्। चतुष्प्रकाटं त्रिविधं त्रिनाशं दानमुच्यते।। दान के दो हेतु, छः अधिष्ठान, छः अंङ दो प्रकार के परिणाम्, चार प्रकार, तीन भेद और तीन विनाश साधन हैं, ऐसा कहा जाता है।
इस श्लोक की व्याख्या करते हुए नारद जी ने कहा है दान का थोड़ा होना या बहुत होना अभ्युदय का कारण नहीं होता, अपितु श्रद्धा और शक्ति के बिना किए कए दान से भला नहीं हो सकता और दान भी नहीं माना जाएगा। इनमें से श्रद्धा के विषय में यह श्लोक है। यदि को श्रद्धा के बिना अपना जीवन भी निछावर कर दे तो भी वह उसका कोई फल नहीं पाता; इसलिए सबको श्रद्धालु होना चाहिए। श्रद्धा से ही धर्म का साधन किया जाता है धन की बहुत बड़ी राशि से नहीं। देहधारियों में उनके स्वभाव के अनुसार श्रद्धा तीन प्रकार की होती है- सात्विकी, राजसी और तामसी। सात्विकी श्रृद्धा वाले पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं, राजसी श्रृद्धा वाले लोग यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हैं तथा तामसी श्रृद्धा वाले मनुष्य प्रतों भूतों और पिशाचों की पूजा किया करते हैं। इसलिए श्रृद्धावान पुरुष अपने न्यायोपार्जित धन का सत्पात्र के लिए जो दान करते हैं वह थोड़ा भी हो तो भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।
शक्ति के विषय में श्लोक इस प्रकार से है- कुटुम्ब के भरण पोषण से जो अधिक हो, वही दान करने योग्य है। उसी से वास्तविक धर्म का लाभ होता है। यदि आत्मीय जन दु:ख से जीवन निर्वाह कर रहे हों तो उस अवस्था में किसी सुखी और समर्थ पुरुष को दान देने वाला धर्म के अनुकूल नहीं प्रतिकूल चलता है। जो भरण पोषण करने योग्य व्यक्तियों को कष्ट देकर किसी मृत व्यक्ति के लिए बहूव्यवसाध्य श्राद्ध करता है तो उसका किया हुआ वह श्राद्ध उसके जीते जी अथवा मरने पर भी भविष्य में दु:ख का ही कारण होता है। जो अत्यंत तुच्छ हो अथवा जिस पर सर्वसाधारण का अधिकार, वह वस्तु ‘सामान्य’ कहलाती है, कहीं से मांगकर लायी वस्तु गई वस्तु को ‘याचित’ कहते हैं, धरोहर का ही दूसरा नाम ‘न्यास’ है बन्धक रखी हुई वस्तु को ‘आधि’ कहते हैं, दी हुई वस्तु ‘दान’ के नाम से पुकारी जाती है, दान में मिली हुई वस्तु को ‘दान धन’ कहते हैं, जो धन एक के यहॉं धरोहर रखा गया हो और रखने वाले ने उसे पुन: दूसरे के यहॉ रख दिया हो उसे ‘अन्वाहित’ कहते हैं, जिसे किसी के विश्वास पर किसी के यहॉ पर छोड़ दिया जाए वह धन ‘निक्षिप्त’ कहलाता है, वंशजों के होते हुए भी सब कुछ दूसरों को दे देना ‘सान्वय सर्वस्व दान’ कहा गया है। विद्वान पुरुष को चाहिए कि वे आपत्ति काल में भी उपर्युक्त नव प्राकर की वस्तुओं का दान न करें। जो पूर्वोक्त नव प्राकर की वस्तुओं का दान करता है, वह मूढ़चित्त मानव प्रायश्चित का भागी होता है।
इस प्रकार दान के दो हेतु श्रृद्धा और शक्ति के बाद दान के छ: अधिष्ठानों का वर्णन करते हुए श्री नारद जी कहते हैं- धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष, और भय ये दान के छ: अधिष्ठान कहे जाते हैं। सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रखकर केवल धर्म बुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को दान दिया जाता है तो उसे ‘धर्म दान’ कहते हैं। मन में कोई प्रयोजन रखकर ही प्रसंग वश जो कुछ दिया जाता है उसे ‘अर्थ दान’ कहते हैं, वह इस लोक में ही फल देने वाला होता है। स्त्री समागम, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह ‘काम दान’ कहलाता है। भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्जावश देने की प्रतिज्ञा कर जो दिया जाता है वह ‘लज्जा दान’ माना गया है। कोई प्रिय कार्य देखकर अथवा प्रिय समाचार सुनकर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है उसे ‘हर्ष दान’ कहते हैं। निन्दा, अनर्थ और हिंसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश होकर जो कुछ दिया जाता है, उसे ‘भय दान’ कहते हैं।
दान के छ: हैं- अंग दाता, प्रतिग्रहीता, शुद्धि, धर्मयुक्त देय वस्तु, देश और काल। दाता निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखनेवाला, व्यसन रहित, पवित्र तथा सदा अनिन्दनीय कर्म से आजीविका चलानेवाला होना चाहिए। इन छ: गुणों से दाता की प्रशंसा होती है। सरलता से रहित, श्रद्धाहीन, दुष्टात्मा, दुर्व्यसनीय, झुठी प्रतिज्ञा करने वाला तथा बहुत सोने वाला दाता तमोगुणी और अधम माना गया है। जिसके कुल, विद्या और आचार तीनों उज्ज्वल हों, जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो, जो दयालु जितेंद्रिय तथा योनि दोष से मुक्त हो वह ब्राह्मण दान का उत्तम पात्र (प्रतिग्रह का उत्तम अधिकारी) कहा जाता है। याचकों को देखने पर सदा प्रसन्न मुख हो उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना तथा उनमें दोष दृष्टि न रखना ये सब सद्गुण दान में शुद्धि कारक माने गए हैं। जो धन किसी दूसरे को सता कर न लाया गया हो, अतिक्लेश उठाये बिना अपने प्रयत्न से उपार्जित किया गया हो, वह थोड़ा हो या अधिक हो, वही देने योग्य बताया गया है। किसी के साथ कोई धार्मिक उद्देश्य लेकर जो व़स्तु दी जाती है, उसे धर्मयुक्त देय कहते हैं। यदि देय वस्तु उक्त विशेषताओं से शून्य हो तो उसके दान से कोई फल नहीं होता। जिस देश अथवा काल में जो- जो पदार्थ दुर्लभ हो, उस- उस पदार्थ का दान करने योग्य वही- वही देश और काल श्रेष्ठ है। इस प्रकार ये दान के छ: अंग बताये गये हैं। महात्माओं ने दान के दो फल बताये हैं। उनमें से एक तो परलोक के लिए होता है और एक इहलोक के लिए। श्रेष्ठ पुरूषों को जो कुछ दिया जाता है, उसका परलोक में उपभोग होता और असत् पुरूषों को जो कुछ दिया जाता है, वह दान यहीं भोगा जाता है। ध्रुव, त्रिक, काम्य और नैमित्तिक – इस क्रम से द्विजों ने वैदिक दान मार्ग को चार प्रकार का बतलाया है। कुआ बनवाना, बगीचे लगवाना तथा पोखरे खुदवाना आदि कार्यों में जो सबके उपयोग में आते हैं, धन लगाना ‘ध्रुव’ कहा गया है। प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है, उस नित्य दान को ही ‘त्रिक’ कहते हैं। सन्तान, विजय, एश्वर्य, स्त्री और बल आदि के निमित्त तथा इच्छा की प्राप्ति के लिए जो दान किया जाता है, वह ‘काम्य’ कहलाता है। ‘नैमित्तिक दान’ तीन प्रकार का बतलाया गया है। वह होम से रहित होता है। जो ग्रहण और संक्रान्ति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है, वह ‘कालापेक्ष नैमित्तिक दान’ है। श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से जो दान किया जाता है वह ‘क्रियापेक्ष नैमित्तिक दान’ है तथा संस्कार और विद्या – अध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा रखकर जो दान दिया जाता है, वह ‘गुणपेक्ष नैमित्तिक दान’ है। इस प्रकार दान के चार प्रकार बतलाये गये हैं। अब उसके तीन भेदों का प्रतिपादन किया जाता है। आठ वस्तुओं के दान उत्तम माने गए हैं। विधि के अनुसार किए हुए चार दान मध्यम हैं और शेष कनिष्ठ माने गए हैं, यही दान की त्रिविधता है। गृह, मंदिर या महल, विद्या, भूमि, गौ, कूप प्राण और सुवर्ण- इन वस्तुओं का दान अन्य दानों की अपेक्षा उत्तम है। अन्न, बगीचा, वस्त्र तथा अश्व आदि वाहन- इन मध्यम् श्रेणी के द्रव्यों को देने से यह मध्यम दान माना गया है। जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक काष्ठ और पत्थर आदि- इन वस्तुओं के दान को श्रेष्ठ पुरूषों ने कनिष्ठ दान बताया है। ये दान के तीन भेद बताये गए हैं।
अब दान नाश के तीन हेतु बताए हैं। जिसे देकर पीछे पश्चाताप किया जाए, जो अपात्र को दिया जाए तथा जो बिना श्रद्धा के अर्पण किया जाए, वह दान नष्ट हो जाता है। पश्चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा – ये तीनों दान के नाशक हैं। इस प्रकार सात पदों में बंधा हुआ यह दान का उत्तम महात्म है।
इस प्रकार यदि प्रत्येक दानकर्ता दान करते समय उपरोक्त तथ्यों का पालन करे तो न सिर्फ वह दान के वास्तविक एवं व्यवहारिक लाभों से लाभांवित हो सकता है, अपितु दानकर्ताओं द्वारा स्वयं की एवं साधनों की शुद्धि के पालन के फलस्वरूप सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में सद्गुणों, सद्भावों एवं सुव्यवस्था का सुंदर अवतरण अवश्यमेव होगा।
अमित प्रजापति
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बढिया जानकारी के लिए धन्यवाद्!!!
ReplyDeleteसचमुच दान की तो महिमा होती ही है !!! सुन्दर तरीके से आपने बताया !!!
ReplyDeleteSHUBH KAMNAYEN...
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