ईश किरन्
शास्वत्ता,
बदलती रहती है वसन्,
और,
प्रकट होती रहती है,
निरन्तर, नये वेश में ।।
हम चमत्कृत हो जाते हैं,
नित् नये परिधान देखकर,
नित् नये आयाम् देखकर ।
हम् अभिभूत् हो उठते हैं,
आभा रश्मियों की अठ्खेलियों से ।।
हम खो जाते हैं, बदलते रंगों के
अलग-अलग भावों में ।
हम मनमोहित हो जाते हैं,
उतरती – चढ़ती कलाओं से ।
हम विस्मित् हो डूबे रहते हैं,
सौंदर्य में श्रृंगार में ।।
हमारी दृष्टि नहीं पहुँच नहीं पाती है,
इस आवरण के पार ।
जहॉं इस सारे संचलन का मूल है ।
काश,
हम समझ सकें,
उस शास्वत् ध्रुव के चारों ओर ही,
हर नया सृजन् है ।।
bahut sundar rajesh agrawal
ReplyDeleteadbut rachna rajesh
ReplyDeleteलाजवाब रचना है
ReplyDelete--->
गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम
अच्छा लिखा है
ReplyDeleteHame jo drushtee deta hai,ye karamat usee kee hai...ham use chahe na sune,sunnekee shaktee to usee se miltee hai!
ReplyDeletehttp://shamasansmaran.blogspot.com
http://kavitasbyshama.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
http://lalitlekh.blogspot.com
मुझे कवितायें पसंद नहीं है पर अच्छा लिखा है
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता .बधाई.
ReplyDeleteचिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.
गुलमोहर का फूल
बहुत अनूठी कविता से प्रवेश किया है आपने...........
ReplyDeleteआपका हार्दिक स्वागत और शुभकामनायें !
acha likhte hai aap
ReplyDeleteacha laga apki rachna pad kar
bahut khoob , badhaai.
ReplyDeleteye kavita aap ki aur bhi achhi he ,aap isi tarh likhte rahe ,aur hindi jagat me chamkte rahe-amit shrivastava
ReplyDelete