वन्‍दे मातरम् !!!!






Sunday, August 23, 2009

ईश किरन्

शास्‍वत्ता,
बदलती रहती है वसन्,
और,
प्रकट होती रहती है,
निरन्‍तर, नये वेश में ।।

हम चमत्‍कृत हो जाते हैं,
नित् नये परिधान देखकर,
नित् नये आयाम् देखकर ।
हम् अभिभूत् हो उठते हैं,
आभा रश्मियों की अठ्खेलियों से ।।

हम खो जाते हैं, बदलते रंगों के
अलग-अलग भावों में ।
हम मनमोहित हो जाते हैं,
उतरती – चढ़ती कलाओं से ।
हम विस्मित् हो डूबे रहते हैं,
सौंदर्य में श्रृंगार में ।।

हमारी दृष्टि नहीं पहुँच नहीं पाती है,
इस आवरण के पार ।
जहॉं इस सारे संचलन का मूल है ।

काश,
हम समझ सकें,
उस शास्‍वत् ध्रुव के चारों ओर ही,
हर नया सृजन् है ।।

11 comments:

  1. अच्छा लिखा है

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  2. Hame jo drushtee deta hai,ye karamat usee kee hai...ham use chahe na sune,sunnekee shaktee to usee se miltee hai!

    http://shamasansmaran.blogspot.com

    http://kavitasbyshama.blogspot.com

    http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com

    http://lalitlekh.blogspot.com

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  3. मुझे कवितायें पसंद नहीं है पर अच्छा लिखा है

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  4. बहुत ही सुन्दर कविता .बधाई.

    चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.

    गुलमोहर का फूल

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  5. बहुत अनूठी कविता से प्रवेश किया है आपने...........
    आपका हार्दिक स्वागत और शुभकामनायें !

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  6. acha likhte hai aap
    acha laga apki rachna pad kar

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  7. ye kavita aap ki aur bhi achhi he ,aap isi tarh likhte rahe ,aur hindi jagat me chamkte rahe-amit shrivastava

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