वन्‍दे मातरम् !!!!






Thursday, October 28, 2010

पड़ाव

देखता हूँ, जिधर भी
आता है नजर, जो भी
चाहे, वो जीवित हो, अजीवित हो
पत्‍थर हो, पहाड़ हो मनुष्‍य हो, पशु हो
धरती हो, अंतरिक्ष हो
या कुछ भी
एक व्‍यक्तित्‍व सा छलकता
नजर आता है ।

हर व्‍यक्तित्‍व का, अपना
एक निराला,
स्‍थाई भाव !
कुछ विशेष कथा सुनाता सा
कुछ भिन्‍न यात्रा संस्‍मरण सा कहता नजर आता है ।
यूँ तो सभी जीवित, अजीवित
तात्‍कालिक संदर्भों पर
प्रतिक्रिया प्रकट करते नजर आते हैं ।

कभी हंसी, मुस्‍कुराहट कभी
कभी रोष, असहमति भी
कभी व्‍यंग, कभी मौन
कभी नृत्‍य, गुनगुनाहट कभी
मानो !
व़ैश्विक परिवार के सदस्‍यों का संवाद हो ।

परन्‍तु, इन सभी व्‍यक्तित्‍वों
के संचारी भाव के पीछे स्‍थाई भाव अनवरत् है ।
यह स्‍थाई भाव !
हर एक के,
भिन्‍न भिन्‍न व्‍यक्तित्‍वों का
असामान्‍य सा निराला वयक्तित्‍व
व्‍यतीत किए गए
देश काल परिस्थितियों में
तय किए गए मार्गों में
उड़ने वाली धूल कणों से
धूप, वायु, वर्षा द्वारा
किया गया श्रृंगार ही तो है ।

याने, ये स्‍थाई भाव भी
लम्‍बे समय अंतराल की,
कृतिमताओं की परत दर परत ही हैं
जो अपनी बोझिलता से
स्‍थाई नजर आता है ।

अब या तो, हम, अपने बोझ ! की बोझिलता बढ़ाते जाऍं
या इस बोझ को छोड़कर
निर्मल, निर्लिप्‍त, सुगम
प्रभाह युक्‍त निर्भार, निराकार हो जाऍं ।

यह चयन, हम
पर ही तो निर्भर है ।

अमित प्रजापति
mo. +919981538208
190, चित्रांश भवन, राजीव नगर, विदिशा (म .प्र .)
पिन – 464001
Email – amitpraj@in.com
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