वन्‍दे मातरम् !!!!






Monday, May 26, 2014

मानवीय सभ्यता का अर्धनारीश्वर स्वरुप


                                                 

             आधुनिक समय के बदलते परिवेश में निःसंदेह स्त्रियों के संर्वांगीण विकास ने उन द्वारों को खोला है जो सदियों से बंद रहे। कुरीतियों को परम्पराओं का चोला पहनाकर भावनात्मक, शारीरिक, आर्थिक सामाजिक हर स्तर पर समाज की आधी आबादी के साथ दमन और शोषण का जो चक्र चला (या अभी भी कमोबेश जारी है), वह मानवीय मनोवृत्ति पर नए सिरे से सोचने समझने की आवश्यकता की ओर इशारा करता है ।

             बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस देश की संस्कृति में जीवन के चारों परम लक्ष्यों - धर्म, अर्थ, मोक्ष और काम की प्राप्ति में स्त्री-पुरुष की सहभागिता की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया हो, उस देश में आधी आबादी के साथ इस प्रकार का भेदभाव व अमानवीय व्यवहार, कहीं न कहीं इस बात की ओर इशारा करता है कि बदलते समय के साथ स्वार्थी तत्वों ने हमारे सांस्कृतिक व जीवन मूल्यों को मनमाने ढंग से तोड़ा मरोड़ा व अपने हित साधे।

           जिस प्रकार गुण आधारित वर्णव्यस्था को वंशानुगत व जन्म आधारित जाति व्यवस्था में बदल दिया गया, जिसका भयावह परिणाम हमारा समाज आज भोग रहा है । हम देख रहे हैं कि किस प्रकार भारतीय समाज दिन पर दिन आपसी कटुता, वैमनस्य व विखराव की स्थिति में पहुँच गया है। कहाँ एक ओर भारतीय समाज में विभिन्न जातियाँ एक दूसरे के साथ आपसी सहचर्य, श्रम विनिमयता एवं प्रेम के ताने बाने में बुनी थीं, वही आज एक दूसरे के साथ शत्रुवत् व्यवहार कर रहीं हैं।

          ठीक उसी प्रकार हमारे मनीषियों द्वारा कहे कथन, "आत्मा का कोई लिंग नहीं होता" इस बात को भूलकर शारीरिक आधार पर स्त्री पुरुष के साथ भेदभाव करने की प्रवृत्ति ने सती प्रथा, दहेज प्रथा, स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखना, भ्रूण हत्या आदि कई कुरीतियों द्वारा हमारी गरिमामयी संस्कृति को विश्व भर में कलंकित किया बल्कि हमारे समाज को पिछड़ेपन की गर्त में पहुँचा दिया। स्वार्थी तत्वों द्वारा जीवन और सांस्कृतिक मूल्यों की मनमानी व्याख्या कर अपना वर्चस्व कायम रखने की प्रवृत्ति के चलते ही सारे विश्व में अपना परचम लहराने वाली हमारी संस्कृति दयनीय अवस्था में चली गयी।

         चाणक्य का एक कथन याद आता है जिसमें उनहोंने कहा था कि यदि हम स्त्री को अशिक्षित व कमजोर करते हैं तो हम अपने समाज को पंगु बना लेते हैं। शायद चाणक्य ने स्त्रियों के प्रति पनप रही विकृति को भांप लिया होगा तभी उन्होंने आगे आने वाले दुष्परिणामों के प्रति समाज को आगाह किया होगा। जैसे जैसे यह विकृति बढ़ती गई भारतीय समाज पतन की ओर बढ़ता गया।

         हमारे देश में प्रतिभाशाली, प्रभावशाली, ओजस्वी, कालजयी एवं विदुषि महिलाओं की जैसी लंबी व सतत् श्रंखला है वैसी किसी और देश, संस्कृति में नहीं मिलती। जहाँ एक ओर हमारे धर्म ग्रन्थों में अनुसुइया, तारा, अरुन्धती, ब्रह्मवादिनी गार्गी, कैकई, सीता, शबरी, दमयंती, माता यशोदा, द्रौपदी, राधा, मैत्रेयी, सावित्री आदि प्रभावशाली महिलाओं का वर्णन मिलता है, वहीं हमारा इतिहास यशोधरा, रानी दुर्गावती, रानी रुपमति, मीराबाई, जीजाबाई, रजिया सुल्तान, चांद बीबी, अक्का महादेवी आदि जैसी न जाने कितनी महिलाओं की यशोगाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने न केवल अपने तत्कालीन समाज को प्रभावित व दिशा निर्देशित किया बल्कि आज भी प्रेरणा स्त्रोत बनी हुई हैं।

         भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी असंख्य महिलाओं ने सामाजिक विषमताओं और दुष्वारियों के बावजूद पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई को धारदार बनाया। महारानी लक्ष्मीबाई, कस्तूरबा गांधी, सरोजनी नायडू, विजया लक्ष्मी पंडित, सुचेता कृपलानी, लक्ष्मी सहगल, प्रीतिलता वाडेकर, भिकाजी कामा, राजकुमारी अमृत कौर, अरुणा आसिफ अली आदि महिलाओं के अविस्मरणी योगदान को कौन नहीं जानता। इसके साथ ही महादेवी वर्मा, इंदिरा गांधी, लतामंगेश्कर, आशा भोंसले, कल्पना चावला, पुनीता अरोड़ा, अमृता शेरगिल, अंजोली इला मेनन, एम॰ एस॰ सुब्बु लक्ष्मी, पी॰ टी॰ उषा,सुष्मिता सेन, सायना नेहवाल, आदि कई विदुषी महिलाओं के उत्कृष्ट व चमत्कारिक योगदान के बिना आधुनिक प्रगतिशील भारतीय समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

         कहने का तात्पर्य कि किसी भी सदी में, समय की धारा व सामाजिक परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल क्यों न रहीं हों महिलाओं ने अपनी प्रतिभा, कर्मठता, लगन और साहस से समय के हर पन्ने पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। यहाँ एक बात यह भी ध्यान रखने योग्य है कि माँ, बहन, पत्नि, प्रेमिका एवं दोस्त के रुप में भी स्त्री सदैव पुरुष की प्रेरणा व प्रेरक रही है। इसी लिए कहा भी जाता है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति की सफलता में एक महिला का योगदान होता है। पुरुष की सहयोगिनी और प्रेरक के रुप में मूक दायित्व निर्वहन के साथ साथ उसके मानवीय सभ्यता को दिए गए व्यक्तिगत योगदानों को भी ध्यान में रखकर ही शायद हमारी संस्कृति में स्त्री को अति सम्मान की दृष्टि से देखा गया और कहा गया कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता“ । यहाँ तक कि माँ को ही प्रथम गुरु भी कहा गया।

         पिछले कई दशकों से स्त्रियों के साथ हो रहे शोषण व अत्याचार के खिलाफ समाज में जागृति आई है, जिसके चलते संविधान एवं सामाजिक स्तर पर स्त्रियों के पक्ष में माहोल बना है। नए परिवेश की अनुकूलता में स्त्रियाँ तेजी से उन्नति की ओर अग्रसर हई हैं। विभिन्न परीक्षाओं में छात्राओं की सफलता का प्रतिशत छात्रों से बेहतर होता है। सेना, पुलिस, अंतरिक्ष, प्रशासनिक सेवा, राजनीति, व्यावसायिक प्रबंधन आदि कई ऐसे क्षेत्र जो पहले स्त्रियों के अनुकूल नहीं समझे जाते थे, वहाँ स्त्रियाँ आज पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहीं हैं।

         शिक्षा एवं आर्थिक आत्म निर्भरता से समाजिक परिदृश्य में स्त्री की स्थिति दिन पर दिन सुदृढ़ हुई है। आज की स्त्री अपने जीवन से संबंधित सभी फैसले अपनी रुचि एवं समझ के अनुरुप करती है। हालांकि यह भी सही है कि परिवर्तन की यह बयार अभी मेट्रो वा बड़े शहरों तक ही पहुँची है, छोटे कस्बों खास कर ग्रामीण स्तर पर स्त्रियों के हालात अभी भी दुष्वारियों से भरे हैं, परन्तु परिवर्तन की यह लहर वहाँ तक भी पहुँचना ही है। तभी एक ऐसा समाज जो स्त्री पुरुष में समानता का व्यवहार करता हो, वो पनपे और आदर्श सभ्यता साकार रुप ले सके।

         ऐतिहासिक और तात्कालिक समाज पर अगर हम नजर डालें तो जैसा पुरुष प्रधान समाज हमें नजर आता है, क्या यह संभव है कि कभी स्त्री प्रधान समाज भी रहा हो ? हिमाचल प्रदेश की कुछ जनजातियों में आज भी स्त्री ही कर्ता धर्ता होती है। यहाँ तक कि स्त्रियों के बहुविवाह भी देखने में आते हैं। महाभारत में भी द्रौपदी के पाँच पति होने का प्रसंग सर्वज्ञ है। बहुत संभव है कि कभी स्त्री प्रधान समाज रहा हो, परन्तु जैसा राजनीति का नियम है कि सारा साहित्य, दर्शन, प्रथाएँ वा परम्पराएँ वर्चस्वमान के हितों के अनुरुप गढ़ी जाती हैं, उसी प्रकार पुरुष प्रधान समाज ने स्त्री प्रधान समाज के चिन्ह मिटा दिए हों।

         एक बात समझने जैसी है कि मनुष्य की मनोवृत्ति अहं के इर्द गिर्द सत्ता के ताने बाने रचता है। मनुष्य अपने अहं को तृप्त करने के लिए भेदों के आडम्बर रचता है व उन्हें वास्तविकता के चोले पहनाने की कोशिश करता है। चाहे वह भेद - धर्म, जाति, रंगभेद, भाषा, भौगोलिकता या लिंग किसी भी आधार पर क्यों न रचे जाएँ।

         इन भेदों के आधार पर खड़े शासन वा समाज से पीडि़त पक्ष, कभी ना कभी बगावत जरुर करता है और फिर पीडि़त - शासक बन जाते हैं और शासक - पीडि़त। इस प्रकार समय के चक्र के साथ कभी एक पक्ष ऊपर तो कभी दूसरा पक्ष, परन्तु इस प्रतिस्पर्धा में समाज से अत्याचार और शोषण मिट नहीं पाता। अतः आवश्यकता इस बात की है कि कुरीतियों, भेदभावों, अत्याचारों वा शोषण मिटाने के लिए जो भी बदलाव हो वो धर्म, जाति, रंग, भाषा, लिंग आदि भेदभावों से ऊपर उठ कर न्याय, समता, योग्यता, समरसता आदि रचनात्मक आधारों पर किए जाएँ। हमारी शासन, सामाजिक व न्याय व्यवस्थाएँ ऐसी हों कि समस्त नागरिकों (स्त्री-परुषों) में आपसी साहचर्य, एक दूसरे के प्रति सम्मान, प्रेम, समता, आपसी सहयोग आदि सद्भाव के साथ साथ समाज एवं देश में सुरक्षा और निर्भयता विकसित हों। एक ऐसा समाज जिसमें स्त्री-पुरुष के सामाजिक, सांसारिक वा आध्यात्मिक संबंधों के ताने बाने - परस्पर सहचर्य, समता वा सामंजस्य के अर्धनारीश्वर स्वरुप को प्रकट रुप दे पाएँ।

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